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________________ आगम विषय कोश - २ ३१. अविधिबंध पात्र का निषेध जे भिक्खू पायं अविहीए बंधति, बंधंतं वा सातिज्जति ॥ (नि १/४३) ......अविधी विधी य बंधो, अविधीबंधो इमो तत्थ ॥ सोत्थियबंधो दुविधो, अविकलितो तेण-बंधो चउरंसो । एसो तु अविधिबंधो, विहिबंधो मुद्दि - णावा य ॥ (निभा ७३७, ७३८) पात्र को अविधिबंध से बांधने वाला भिक्षु मासगुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है । बंध के दो प्रकार हैं १. अविधिबंध - स्वस्तिकबंध और स्तेनबंध । स्वस्तिकबंध के दो प्रकार हैं ० अविकल - समचतुरस्र कोणों से भिन्न ० विकल - एक ओर से भिन्न दो ओर से भिन्न स्तेनबंध २. विधिबंध - मुद्रिकासंस्थित और नौकाबंध संस्थित। भिज्जिज्ज लिप्यमाणं, लित्तं वा असइए पुणो बंधे । मुद्दियनावाबंधे, न तेणबंधेण बंधेज्जा ॥ (बृभा ५२८) १३५ < लेप्यमान अथवा लिप्त पात्र भग्न हो जाए और दूसरा पात्र न हो, भग्न पात्र को पुनः जोड़ना हो तो मुद्रितनौबंधन (मुद्रिका - नौकाबंध-संस्थित) से जोड़े, स्तेनकबंध से नहीं । ३२. घटीमात्रक का स्वरूप और उपयोग अपरिस्साई मसिणो, पगासवदणो स मिम्मओ लहुओ । सुइ - सिय- दद्दरपिहणो, चिट्ठइ अरहम्मि वसहीए ॥ (बृभा २३६४) Jain Education International घटीमात्रक जल से अत्यंत भावित होने के कारण अपरिश्रावी होता है। वह चौड़े मुख वाला, मिट्टी से निष्पन्न और हल्का होता है, स्वच्छ श्वेत वस्त्र से पिहित होता है। ऐसा पात्र उपाश्रय के प्रकाश प्रदेश में रखा जा सकता है (यह प्रस्रवण के लिए उपयोगी है ।) कप्पइ निग्गंथीणं अंतोलित्तयं घडिमत्तयं धारित्तए वा उपधि "बिइयं परिहरित्त वा ॥ नो कप्पइ निग्गंथाणं । (क१/१६, १७) गिलाणकारण ॥ लाउय असइ सिणेहो, ठाइ तहिं पुव्वभाविय कडाहो । सेहे न सोयवायी, धरंति देसिं व ते पप्प॥ ( बृभा २३६५, २३६९ ) साध्वियां अंत: लेपयुक्त घटीमात्रक (घटी के आकार वाला मृन्मय पात्रविशेष) रख सकती हैं और उसका उपयोग कर सकती हैं। साधु घटीमात्रक न रख सकते हैं और न ही उसका उपयोग कर सकते हैं। वे दो कारणो से घटीमात्रक का प्रयोग कर सकते हैं • रोग उत्पन्न हो जाने पर किसी ग्लान के लिए घृत की अपेक्षा हो तो अलाबुपात्र के अभाव में पूर्वभावित कटाहक या घटीमात्रक ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि उसमें गृहीत घृत परिश्रवित नहीं होता। ० शौचवादी शिष्य के लिए तथा गोल्लदेश जैसे शौचवादी क्षेत्र में यह पात्र ग्रहण किया जा सकता है। ३३. आर्यरक्षित द्वारा मात्रक अनुज्ञा दिन्नज्जरक्खितेहिं दसपुरनगरम्मि उच्छुघरनामे । वासावासठितेहिं, गुणनिप्फत्तिं बहुं नाउं ॥ ..... लोभे पसज्जमाणे, वारेंति ततो पुणो मत्तं ॥ एवं सिद्धग्गहणं आयरियादीण कारणे भोगो । पाणादयद्रुवभोगो, बितिओ पुण रक्खियज्जाओ ॥ (व्यभा ३६०५, ३६०९, ३६१० ) अतिरिक्त पात्र रखने से वर्षावास में बहुत गुण-निष्पत्ति होगी - इस उद्देश्य से आर्यरक्षित ने दशपुर नगर के इक्षुगृह उद्यान में वर्षावास में एक अतिरिक्त पात्र - मात्रक रखने की अनुज्ञा दी। ऋतुबद्धकाल में आचार्य, ग्लान आदि के प्रायोग्य द्रव्य ग्रहण के लिए मात्रक अनुज्ञात है। अन्य कारणों से उसका उपभोग केवल लोभ के प्रसंग से होता है, इसलिए मात्रक का वर्जन कर दिया। आचार्य आदि के कारण से मात्रक का परिभोग ओघनिर्युक्ति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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