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________________ उपधि कहलाता है। दूसरा पात्र वैजयंतिक है। इन दोनों में से एक at अभिग्रहपूर्वक गवेषणा करना तीसरी प्रतिमा है । ४. उज्झितधर्मिक पात्र --- जिस पात्र को श्रमण, माहन, अतिथि, कृपण और वनीपक नहीं चाहते, वैसे पात्र की स्वयं याचना करे या गृहस्थ स्वयं दे, उस पात्र को ग्रहण करे । गच्छवासी मुनि प्रतिमाचतुष्टय से पात्र ग्रहण करते हैं । जिनकल्पी मुनि अंतिम दो में से किसी एक का अभिग्रह ग्रहण कर पात्र की गवेषणा करते हैं । २९. धारणीय पात्र ग्राह्य सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण पायं जाणेज्जा - अप्पंड अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग- पणग- दग-मट्टिय-मक्कडासंताणगं, अलं थिरं धुवं धारणिज्जं, रोइज्जंतं रुच्चइ, तहप्पगारं पायं - फासूयं एसणिज्जं ति मण्णमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा ॥ (आचूला ६/३१) वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी पात्र को जाने- अण्डे, प्राण, बीज, हरित, ओस, उदक, चींटियों के बिल, फफूंदी दलदल ( या सचित्त मिट्टी) और मकड़ी के जाले से रहित है, पर्याप्त, स्थिर ( मजबूत), ध्रुव (टिकाऊ) और धारण करने योग्य है, उस प्रकार के पात्र को अभिलषणीय- एषणीय मानता हुआ मिलने पर ग्रहण करे। भिक्खू पsिहं अणलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं धरेति ॥ अलं थिरं धुवं धारणिज्जं न धरे ति... ॥... तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं ॥ ( नि १४/८, ९, ४१ ) अलमपज्जतं खलु, अथिरं अदढं तु होति णायव्वं । अधुवं च पाsिहारिय, अलक्खणमधारणिज्जं तु ॥ ( निभा ४६२६) जो भिक्षु अपर्याप्त, अदृढ़, प्रातिहारिक और अलक्षण पात्र रखता है, पर्याप्त, दृढ, ध्रुव और धारणीय पात्र नहीं रखता है, वह चतुर्लघु प्रायश्चित्त का भागी होता है। ३०. सलक्षण - अलक्षण पात्र वट्टं समचउरंसं, होइ थिरं थावरं च वन्नड्डुं । हुंडं वायाइद्धं भिन्नं च अधारणिजाई ॥ १३४ Jain Education International आगम विषय कोश- २ वृत्तं वर्तुलं, समचतुरस्त्रं उच्छ्रयपरिधिना कुक्षिपरिधिना च तुल्यं, स्थिरं सुप्रतिष्ठानं दृढं वा, स्थावरम् अप्रातिहारिकं, वर्णाढ्यं स्निग्धवर्णोपेतं हुण्डं विषमसंस्थितं क्वचिद् निम्नं क्वचिदुन्नतमित्यर्थः, वाताविद्धं निष्पत्तिकालमन्तरेणार्वागपि शुष्कम् अत एव संकुचितं वलिभृतं च सञ्जातम्, भिन्नं नाम सच्छिद्रं जियुक्तं वा । (बृभा ४०२२ वृ) वर्तुल, समचतुरस्र, स्थिर, अप्रातिहारिक (दीर्घकालस्थायी) और स्निग्ध वर्ण युक्त – इन गुणों से युक्त तथा ज्ञान आदि गुणों का वहन करने वाला पात्र लक्षणयुक्त होता है । विषम संस्थान वाला, निष्पत्तिकाल से पूर्व सूखने वाला झुर्रीयुक्त, छिद्र तथा दरार से युक्त पात्र लक्षणहीन होने से अधारणीय होता है। ० पात्र का संस्थान और लाभ-हानि संठियम्मि भवे लाभो, पतिट्ठा सुपतिट्ठिए । निव्वणे कित्तिमारोग्गं, वन्नड्ढे नाणसंपया ॥ हुंडे चरित्तभेओ, सबलम्मि य चित्तविब्भमं जाणे । दुप्पुते खीलसंठाणे, नत्थि द्वाणं ति निद्दिसे ॥ पउमुप्पले अकुसलं, सव्वणे वणमाइसे। अंत बहिं व दड्ढे, मरणं तत्थ निद्दिसे ॥ (बृभा ४०२३-४०२५ ) वृत्त और समचतुरस्र संस्थित पात्र धारण करने पर विपुल भक्तपान आदि का लाभ होता है। स्थिर पात्र ग्रहण करने पर चारित्र, गण आदि में स्थिरता होती है । व्रणरहित पात्र से कीर्ति और आरोग्य की प्राप्ति होती है। स्निग्धवर्णयुक्त पात्र से ज्ञान संपदा बढ़ती है । विषम संस्थान वाला पात्र चारित्र का भेद करता है। विचित्र वर्ण वाला पात्र चित्त में विक्षिप्तता पैदा करता है। जो पात्र पुष्पकमूल में अप्रतिष्ठित या अस्थिर कीलक संस्थान वाला है, उससे गण और चारित्र में स्थान नहीं होता । पद्मोत्पलाकार पुष्पकयुक्त पात्र अकुशल करने वाला होता है (पुष्पक का अर्थ है पात्र की नाभि ) । सव्रण पात्र का स्वामी व्रणों से युक्त होता है, भीतर व बाहर से जला हुआ पात्र मरण का संकेत है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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