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________________ आगम विषय कोश - २ १३. वस्त्र ग्रहण से पूर्व तीन पृच्छा विउसग्ग जोग संघाडएण भोइयकुले तिविह पुच्छा । कस्स इमं किं व इमं कस्स व कज्जे (बृभा २७९६) ॥ १२९ संघाटक (मुनिद्वय) उपयोग संबंधी कायोत्सर्ग कर भिक्षा के लिए जाए। भोजिक आदि कुलों में प्रवेश करने पर यदि गृहपति वस्त्र के लिए निमंत्रित करे तो मुनि वस्त्रग्रहण से पूर्व त्रिविध पृच्छा करे १. यह वस्त्र किसका है ? २. यह क्या है ? ३. किस प्रयोजन से तुम इसे दे रहे हो ? १४. वस्त्र ग्रहण के अवग्रह निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अप्पविट्ठे केइ वत्थेण उवनिमंतेज्जा, कप्पड़ से सागारकडं गहाय आयरियपायमूले ठवेत्ता दोच्चं पि ओग्गहं अणुण्णवेत्ता परिहारं परिहरित्तए । (क १/३८) संघाडए पविट्ठे, रायणिए तह य ओमरायणिए । जं लब्भइ पाओग्गं, रायणिए उग्गहो होइ ॥ (बृभा २८१०) गृहपति के घर में पिंडपात की प्रतिज्ञा से अनुप्रविष्ट मुनि को कोई गृहस्थ वस्त्र से उपनिमंत्रित करे तो मुनि उस वस्त्र को इस धारणा से ग्रहण करे कि यह वस्त्र आचार्य का है, मेरा नहीं । आचार्य मुझे या अन्य जिस किसी को देंगे या स्वयं उसका उपयोग करेंगे, यह उसी का होगा - इस सविकल्प वचन व्यवस्था से उसे ग्रहण कर आचार्य के चरणों में उसे समर्पित करे। यदि आचार्य उसे ही दे देते हैं तो वह दूसरा अवग्रह है। एक गृहस्थ का अवग्रह, दूसरा आचार्य का अवग्रह। तत्पश्चात् उस वस्त्र को धारण करे, परिभोग करे । भिक्षा के लिए प्रविष्ट मुनिसंघाटक में एक रानिक होता है और एक अवम रात्निक । वे भिक्षा में प्रायोग्य वस्तु प्राप्त करते हैं । जब तक आचार्य के पास नहीं पहुंचते, तब तक उस वस्तु का स्वामी रानिक मुनि का अधिकार होता है। १५. वस्त्र विक्रिया निषेध भिक्खू वा भिक्खुणी वा णो वण्णमंताई वत्थाई Jain Education International उपधि 44 विवण्णाई करेज्जा, विवण्णाइं णो वण्णमंताई करेज्जा, 'अण्णं वा वत्थं लभिस्सामि' त्ति कट्टु णो अण्णमण्णस्स देज्जा थिरं वा णं संतं णो पलिच्छिदिय-पलिच्छिदिय परिट्ठवेज्जा, जहा चेयं वत्थं पावगं परो मन्नइ । (आचूला ५/४८) वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी वर्णवान् (सुंदर) वस्त्रों को विवर्ण न करे, विवर्ण वस्त्रों को वर्णवान् न करे, 'अन्य वस्त्र प्राप्त कर लूंगा' यह सोचकर परस्पर एक-दूसरे को न दे मजबूत वस्त्र को खण्ड-खण्ड कर विसर्जित न करे, जिस वस्त्र को गृहस्थ असुंदर मानता है, (वैसा वस्त्र धारण करे ) । १६. साध्वी-प्रायोग्य वस्त्र का ग्रहण-परीक्षण सत्त दिवसे ठवेत्ता, थेरपरिच्छा ****** | दे गणी गणिणी, मग्गति थेरियाओ, लद्धं पि य थेरियाउ गेण्हंति । ..... सत्त दिवसे ठवित्ता, कप्पे कते थेरिया परिच्छंति । सुद्धस्स होइ धरणा, असुद्ध छेत्तुं परिट्ठवणा ॥ 11. (बृभा २८२०, २८२८, २८२९) ******** साधु द्वारा साध्वी के प्रायोग्य वस्त्र प्राप्तकर उन्हें सात दिन तक स्थापित किया जाता है, फिर धोकर उनसे स्थविर को प्रावृत कर परीक्षा की जाती है। यदि उनके परिभोग से कोई विकार पैदा नहीं होता है तो गणी उन्हें प्रवर्तिनी को देते हैं, फिर प्रवर्तिनी यथाक्रम से साध्वियों को देती है । श्रमणों के अभाव में दृढ़धर्मिणी और गीतार्थ स्थविरा वस्त्र की गवेषणा करे । वस्त्र की उपलब्धि होने पर स्थविरा ही दायक के हाथ से ग्रहण करे। गृहीत वस्त्र को सात दिनों तक स्थापित करे। फिर उसका प्रक्षालन करके उससे अपने शरीर को प्रावृत कर उसकी परीक्षा करे। यदि वस्त्र शुद्ध है तो धारण करे। यदि अशुद्धभावों का उत्पादक है तो उसे छिन्न कर परिष्ठापित करे । • गणधरनिश्रा में वस्त्रग्रहण संज्ञातकादिना वस्त्रं दीयमानं प्रवर्तिन्या निवेदयति, प्रवर्तिनी गणधरस्य निवेदयति, ततो गणधर : स्वयमागत्य परीक्षाशुद्धं कृत्वा गृह्णाति । अथ नास्ति तत्र प्रवर्तिनी ततस्तद् वस्त्रं वर्णेन रूपेण चिह्नेन चोपलक्ष्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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