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________________ आगम विषय कोश-२ १२७ उपधि घण मसिणं णिरुवहयं, जं वत्थं लब्भते सदसियागं। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी अकृत्स्न वस्त्र ग्रहण-धारण कर एतं तु सकलकसिणं, जहण्णगं मज्झिमुक्कोसं॥ सकते हैं, कृत्स्न नहीं। वित्थारा-ऽऽयामेणं, जं वत्थं लब्भए समतिरेगं। १०. सुलक्षण वस्त्र का प्रयोजन : द्रमक आदि दृष्टांत एयं पमाणकसिणं ............॥ किं लक्खणेण अम्हं, सव्वणियत्ताण पावविरयाणं। जं वत्थ जम्मि देसम्मि दुल्लहं अच्चियं व जं जत्थ। लक्खणमिच्छंति गिही, धण-धण्णे-कोसपरिवुड्डी॥ तं खित्तजुयं कसिणं .......॥ लक्खणहीणो उवही, उवहणतीणाण-दसण-चरित्ते। जं वत्थ जम्मि कालम्मि, अग्घितं दुल्लभं व जं जत्थ। तम्हा लक्खणजुत्तो, गच्छे दमएण दिटुंतो॥ तं कालजुतं कसिणं थाइणि वलवा वरिसं, दमओ पालेति तस्स भाएणं। दुविहं च भावकसिणं, वण्णजुतं चेव होति मोल्लजुयं" चेडीघडण निकायण, उविट्ठ दुम चम्म भेसणया॥ मुल्लजुयं पिय तिविहं, जहण्णगं मज्झिमंच उक्कोसं। दुण्ह वितेसिंगहणं, अलं मिअस्सेहि अस्सिगं भणइ। जहण्णेणऽट्ठारसगं, सतसाहस्सं च उक्कोसं॥ वढइ भच्चइ धूयापयाण कुलएण ओवम्मं ।। (बृभा ३८८१-३८८६, ३८९०) (बृभा ३९५७-३९६०) १. द्रव्यकृत्स्न-इसके दो प्रकार हैं-सकलकृत्स्न और प्रमाण- ... शिष्य ने पूछा-भंते! गृहस्थ सारंभ और सपरिग्रह होते कृत्स्न हैं। वे धन-धान्य-कोश की वृद्धि चाहते हैं, इसलिए वस्तु सकलकृत्स्न-तन्तुओं से सान्द्र, स्पर्श से सुकुमार, निरुपहत ग्रहण करने से पूर्वलक्षण-अलक्षण, संस्थान आदि की विचारणा (अंजन-खंजन आदि से निर्दोष)और सदशाक (किनारी सहित) करते हैं। हम मुनि आरंभ और परिग्रह से मुक्त हैं, फिर हम वस्त्र- मुखपोतिका आदि जघन्य, पटलक आदि मध्यम और वस्त्र के लक्षण-अलक्षण की मीमांसा क्यों करें? कल्प आदि उत्कृष्ट हैं। आचार्य ने कहा-प्रशस्त वर्ण, संस्थान आदि से रहित प्रमाणकृत्स्न-विस्तार और आयाम में प्रमाण से अतिरिक्त वस्त्र। उपधि धारण करने से साधओं के ज्ञान, दर्शन और चारित्र का २. क्षेत्रकृत्स्न-जो वस्त्र जिस क्षेत्र में दुर्लभ अथवा बहुमूल्य हनन होता है. अत: लक्षणयक्त उपधि धारण करना चाहिए। है, वह क्षेत्रकृत्स्न कहलाता है। जैसे-पूर्व देश में उत्पन्न द्रमक दृष्टांत-पारस देश के एक व्यक्ति के पास प्रतिवर्ष वस्त्र लाटदेश में मूल्यवान् है। प्रसव करने वाली अनेक घोड़ियां थीं। उसके पास अश्वों की ३. कालकृत्स्न-जो वस्त्र जिस काल में मूल्यवान् अथवा प्रचुरता हो गई। उनकी सार-संभाल के लिए उसने एक दुर्लभ है, वह कालकृत्स्न कहलाता है, जैसे-ग्रीष्म में काषायिक, नौकर को इस शर्त पर रखा कि वर्ष के अंत में उसकी शिशिर में प्रावार और वर्षाऋतु में कुंकुमखचित आदि वस्त्र। मनपंसद के दो अश्व उसे दे दिए जाएंगे। अश्वरक्षक का ४. भावकृत्स्न-इसके दो प्रकार हैं-वर्णयुत और मूल्ययुत। अश्वस्वामी की कन्या से साहचर्य हो गया था। एक वर्ष पूरा - मूल्ययुत वस्त्र के तीन प्रकार हैं-जघन्य अठारह रुपये हुआ। अश्वस्वामी ने उसे कहा-जाओ, दो मनपसंद अश्व ले का, उत्कृष्ट एक लाख रुपये का और इनके मध्यवती मध्यम लो। वह अश्वों के लक्षण नहीं जानता था। उसने स्वामी की कन्या से लक्षणयुक्त अश्वों के विषय में पूछा । वह बोली० अकृत्स्न वस्त्र कल्पनीय तुम प्रतिदिन अश्वों को लेकर जंगल में जाते हो। जब अश्व नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा कसिणाइं एक विशाल वृक्ष के नीचे बैठे हों तब तुम चमड़े के कुतप में वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ पत्थर भरकर वृक्ष के ऊपरी भाग से उसे गिराना और पटहवादन कप्पइ ........... अकसिणाई वत्थाई ........॥ करना। जो अश्व इस क्रिया से त्रस्त न हों, वे सुलक्षण अश्व (क ३/७,८) हैं। उसने वैसा ही किया और स्वामी से उन दो अश्वों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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