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________________ उत्सारकल्प १२२ आगम विषय कोश-२ ९. आर्य-अनार्य उत्सारकल्पी पठनीय अध्ययन के अनोज और ओज उद्देशकों के अज्जस्स हीलणा लज्जणाय गारविअकारणमणज्जे। आधार पर वाचना-परिमाण होता है। अनोज का अर्थ है सम आयरिए परिवाओ, वोच्छेदो सुतस्स तित्थस्स॥ और ओज का अर्थ है विषम। (बुभा ७२५) सम (२, ४, ६ आदि) उद्देशक हों तो प्रतिदिन दो-दो यदि उत्सारकल्पी आर्य हो और उसे कोई 'वाचक' उद्देशक की वाचना दे। जैसे-कल्प के छह उद्देशक हैं। एक दिन में दो उद्देशकों की वाचना दे। प्रथम पौरुषी में प्रथम उद्देशक कहता है तो उसे हीलना का अनभव होता है क्योंकि वह मन । ही मन जानता है कि मैं कैसा वाचक? वह प्रश्न का सही का उद्देश-समुद्देश कर द्वितीय उद्देशक भी पढ़ाये। दसरे प्रहर में दोनों उद्देशकों का अर्थ कहे। चौथे प्रहर उत्तर नहीं आने पर लज्जा का अनभव करता है। इसके में प्रथम उद्देशक की अनुज्ञा देकर द्वितीय उद्देशक का समुद्देश विपरीत जो उत्सारकल्पी अनार्य होता है, उसे वाचक कहने करे और अनुज्ञा दे। इस विधि से तीन दिन में छह उद्देशकों पर वह गौरव का अनुभव करता है। की वाचना दे। प्रश्नकर्ता सम्यक समाधान न मिलने पर उसके आचार्य जिस अध्ययन में उद्देशकों की संख्या विषम (३, ५, ७ का परिवाद करते हैं। श्रुत के परावर्तन के अभाव में श्रुत का आदि) हो तो अंतिम दिन एक उद्देशक की वाचना दे। जैसेव्यवच्छेद हो जाता है। श्रुत के व्यवच्छेद से तीर्थ का भी शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में सात उद्देशक हैं। तीन दिनों में छह व्यवच्छेद हो जाता है। उद्देशक उद्दिष्ट कर चौथे दिन सातवें उद्देशक का प्रथम प्रहर में १०. उत्सारकाल : अकालवर्जन नहीं उद्देश-समुद्देश कर चौथे प्रहर में उसकी अनुज्ञा दे। सज्झायमसज्झाए, व उहिसे काले। कछ आचार्य मानते हैं-यदि शिष्य मेधावी है, तो वह (बृभा ७४५) जितने परिमाण में अध्ययन करता है, उसे उतने उद्देशकों की उत्सारकल्प करते समय स्वाध्यायिक हो या अस्वा- वाचना दे (दो, चार अथवा सभी उद्देशकों की वाचना एक दिन ध्यायिक, शुद्धकाल हो या अशुद्धकाल, विवक्षित श्रुत की में दी जा सकती है)। निरंतर वाचना दी जाती है, किंचित् भी व्याघात नहीं किया १२. योगवहन एवं आहार जाता। एगंतरमायंबिल, विगईए मक्खियं पि वज्जेति। ११. वाचना परिमाण : ओज अनोज उद्देशक ..."अप्पाहारो परिहार मोअ जह अप्पनिद्दो अ॥ """दो दो अ अणोएसुं, ओएसु उ अंतिम एक्कं। दिति पणीयाहारं, न य बहुगं मा हु जग्गतोऽजिण्णं। ... जावइअं च अहिज्जइ, तावइयं उद्दिसे केई॥ मोआइनिसग्गेसु अ, बहुसो मा होज्ज पलिमंथो॥ अणोया णाम समा उद्देसया। जधा कप्पस्स, तस्स (बृभा ७४६, ७४७, ७५०) दिणे दिणे दो दो उद्देसया उद्दिस्संति, पढमपोरिसीए एगो ० योगवहन-आचार आदि के उद्देश-समुद्देश काल में एक उद्दिट्ठो समुट्ठिो य, ताधे बितियं उद्दिसति, बितियपोरिसीए दिन आचाम्ल और एक दिन निर्विकृतिक तप किया जाता है, तेसिं चेव सो अत्थो कधिज्जति। चरिमपोरिसीए तं पढमं विकृति से खरंटित पदार्थ का भी वर्जन किया जाता है। अणुयाणित्ता बितियं समुद्दिसति अणुयाणति य। ० आहार-अध्येता को अल्प आहार देना चाहिए। जिससे ओया णाम विसमा। जहा सत्थपरिणाए, तीए छ उच्चार-प्रस्रवण की अल्पता रह सके। वह निद्रा भी अल्प उद्देसया उद्दिसित्ता तिहिं दिवसेहि, चउत्थे दिवसे एगो ले, आचार्य को वैसा प्रयत्न करना चाहिये । गुरु उत्सारकल्प चेव।तं पढमपोरिसीए उद्दिठ्ठ-समुट्ठि करेत्ता चरिमाए अणु- करने वाले शिष्य को स्निग्ध और मधुर आहार देते हैं, जिससे जाणति। (बृभा ७४५, ७४६ चू) वह दिन-रात सुखपूर्वक दृष्टिवाद आदि सूत्रों की अनुप्रेक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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