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________________ आगम विषय कोश-२ १२१ उत्सारकल्प धर्मकथा की लब्धि से सम्पन्न शिष्य भी दीक्षापर्याय ० अवस्थित-स्वलिंग और मुनिचर्या में अवस्थित। .की न्यूनता के कारण दृष्टिवाद नहीं पढ़ सकता। इस कारण से ० मेधावी-मर्यादा मेधावी। प्रयोजन होने पर ग्रहण मेधावी वह कालिकश्रुत अनुयोग से धर्मकथा करता है और उसके लिए भी उत्सारणीय है। दृष्टिवाद के अन्तर्गत आने वाली कुलकरगंडिका तथा प्रतिबोधी-जितना बताया जाता है, उतना जान लेने में तीर्थंकरगंडिका आदि का अध्ययन उपयोगी है, किन्तु उद्देश- कुशल। समुद्देश की विधि के बिना उनका अध्ययन आदि नहीं कर योगकारक-सूत्र के अर्थ ग्रहण में प्रमाद न करने वाला। सकता-यह सोचकर सुविहित आचार्य गंडिकाओं का अन्य आचार्य-परम्परा के अनुसार-प्रबुद्ध, स्थिर, कालिकश्रुतानुयोग में समवतार करने के लिए दृष्टिवाद का संविग्न, गुरु को कभी न छोड़ने वाला, योगकारक, दुर्मेधा उत्सारण करते हैं, अन्य किसी कारण से नहीं। होने पर भी लब्धिसम्पन्न, परिणामक, विनीत, आचार्य का गुणोत्कीर्तन करने वाला, अनुकूल वर्तन (वैयावृत्त्य आदि) ७. उत्सारकल्प-योग्य के गण करने वाला और धर्मनिष्ठ-ऐसा महाभाग शिष्य उत्सारकल्प अभिगए पडिबद्धे, संविग्गे अ सलद्धिए। के योग्य होता है। अवट्ठिए अ मेहावी, पडिबुज्झी जोअकारए॥ ८. उत्सारण के विकल्प और प्रायश्चित्त सम्मत्तम्मि अभिगओ, विजाणओवा वि अब्भुवगओवा। अणभिगयमाइआणं, उस्सास्तिस्स चउगुरू होति। सज्झाए पडिबद्धो, गुरूसु नीएल्लएसुं वा॥ उग्गहणम्मि वि गुरुगा......॥ संविग्गो दव्व मिओ, भावे मूलुत्तरेसु उ जयंतो। योऽवग्रहणे समर्थ उत्तममेधावी. यावन्मानं सत्रं लद्धी आहाराइसु, अणुओगे धम्मकहणे य॥ तस्योद्दिश्यते तावदशेषमप्यर्थेन युक्तमवगृह्णाति, यो वा लिंग विहारेऽवट्ठिओ, मेरामेहावि गहणओ भइओ। वैरस्वामिवत् पदानुसारिप्रतिभो भूयस्तरमप्यनुसरति पडिबुज्झइ जं कत्थइ, कुणइ अ जोगं तदट्ठस्स॥ तस्योत्सारणीयम्। (बृभा ७३९ वृ) अभिगय थिर संविग्गे, गुरुअमुई जोगकारए चेव। दुम्मेहसलद्धीए, पडिबुज्झी परिणय विणीए॥ ___ जो अनभिगत, अप्रतिबद्ध, असंविग्न, अलब्धिक, आयरियवण्णवाई, अणुकूले धम्मसड्डिए चेव। अनवस्थित, अमर्यादामेधावी, अप्रतिबोधी, अयोगकारक, एतारिसे महाभागे, उस्सारं काउमरिहइ॥ अपरिणत, अविनीत, आचार्य का अवर्णवादी, आचार्य के __ (बृभा ७३३-७३८) अननुकूल तथा अधर्मश्रद्धालु है, उस शिष्य के लिए उत्सार कल्प करने वाले आचार्य चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। उत्सारकल्प के योग्य वही हो सकता है, जो अनेक जो सूत्र-अर्थ का शीघ्र अवग्रहण करने में कुशल है गुणों से युक्त होता है उस मेधावी के लिए निष्कारण उत्सारण करने पर आचार्य को ० अभिगत-दृढ़ सम्यक्त्वी अथवा तत्त्वविज्ञाता अथवा चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। अथवा अवग्रहण की एक अन्य गुरुकुलवास को न छोड़ने के लिए संकल्पित । व्याख्या भी है० प्रतिबद्ध-परावर्त्तन, अनुप्रेक्षा आदि रूप स्वाध्याय में सतत जो समर्थ-उत्तम मेधावी होता है, उसके लिए जितनी उपयुक्त अथवा गुरु के प्रति स्थिर ममत्वानुबंध वाला अथवा मात्रा में सूत्र का उद्देश किया जाता है, उतनी मात्रा में वह सूत्र प्रव्रजित संबंधियों के प्रति अनुरक्त। के साथ अशेष अर्थ को भी ग्रहण कर लेता है। अथव ० संविग्न-मूल-उत्तर गुणों में उद्यमी भावसंविग्न है । सर्वत्र जिसकी वज्रस्वामी की भांति पदानुसारिणी प्रतिभा होती है, भयभीत मृग द्रव्य संविग्न है। वह और अधिक मात्रा में ग्रहण कर लेता है। उसके लिए सलब्धिक-आहार, वस्त्र आदि के उत्पादन की लब्धि से अवश्य उत्सारण करना चाहिए अन्यथा चतुर्गुरु प्रायश्चित्त युक्त तथा अनुयोग और धर्मकथा आदि की लब्धि से सम्पन्न। आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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