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________________ आहार ११४ आगम विषय कोश-२ पगामं होति बत्तीसा, निकामं जं तु निच्चसो। पडुपन्नऽणागते वा, संजमजोगाण जेण परिहाणी। दुप्पविजहया तेसु, गेही भवति वज्जिया॥ ण वि जायति तं जाणसु, साहुस्स पमाणमाहारे॥ (व्यभा ३६८६-३६८८) (बृभा ५८४७,५८५२) स्वाध्याय आदि योगों की हानि न हो तो मनि छहमासिक लोहे की कड़ाही में उसके प्रमाण से अधिक वस्तु तप के पारणे में एक सिक्थ (धान्यकण जितना) खाये। उसमें डाली जाती है तो वह बाहर निकल जाती है। कड़ाही एक सिक्थ खाकर न रह सके तो दो, तीन सिक्थ यावत् में प्रमाण से कम डाली जाती है तो वह बाहर नहीं निकलती। एक ग्रास, दो ग्रास यावत् इकतीस ग्रास खाये। इसी प्रकार अतिमात्रा में आहार करने से उद्गार आते हैं, छहमासिक तप न कर सके तो एक-एक दिन की हानि वमन हो जाता है। अतः आहार की मात्रा कम हो, जिससे करते हुए उपवास करे। पारणे में अपेक्षानुसार सिक्थ-कवल की उदगार न आए। वृद्धि करे। उपवास भी न कर सके तो नित्यभोजी मुनि एक जितना आहार करने से वर्तमान और अनागत काल में एक सिक्थ-कवल की वृद्धि करते हुए इकतीस कवल खाए। सयंमयोगों की हानि नहीं होती. वह प्रमाणयक्त आहार है। बनीस यास खाने वाला प्रकामभोजी और नित्यप्रति . चींटी....मिश्रित भोजन : मेधा आदि की हानि बत्तीस ग्रास खाने वाला निकामभोजी कहलाता है। जो ____.."घरकोइलाइमुत्तण, पिवीलगा मरण णाणाता॥ प्रकामभोजी और निकामभोजी नहीं होता-बत्तीस कवल में से गिहकोकिल-अवयवसम्मिस्सेण भुत्तेण पोट्टे किल एक कवल भी कम खाता है, उसकी आहार के प्रति आसक्ति गिहकोइला सम्मुच्छंति। मुइंगासु मेहा परिहायति। टूट जाती है। मेहापरिहाणीए णाणविराहणा। (निभा ३४७५ चू) ७. आहार का अनुपात और उदर-विभाग रात्रि में भोजन-पानी में गृहकोकिला (छिपकली) अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भाए। मूत्रविसर्जन कर सकती है। उसके अवयवों से मिश्रित भोजन वायापवियारणट्ठा, छब्भागं ऊणयं कुज्जा। करने पर पेट में छिपकली सम्मूच्छित हो सकती है। उस एसो आहारविधी, जध भणितो सव्वभावदंसीहिं। व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है-यह आत्मविराधना है। चींटीधम्माऽवस्सगजोगा, जेण न हायंति तं कुज्जा॥ मिश्रित भोजन करने से मेधा की हानि होती है और मेधा की (व्यभा ३७०१,३७०२) परिहानि से ज्ञान-विराधना होती है। उदर के छह भाग कल्पित हैं। उनमें से तीन भाग १०. विरुद्ध द्रव्यों का मेल अहितकर व्यञ्जनसहित अशन के लिए तथा दो भाग पानी के लिए सुरक्षित रखे। एक छठा भाग वायु प्रविचार के लिए खाली पालंक-लट्टसागा, मुग्गकयं चाऽऽमगोरसुम्मीसं। रखे। (प्रावृट् काल में चार भाग अशन-व्यंजन के लिए, एक संसज्जती उ अचिरा, तं पि य नियमा दुदोसाय॥ पानी के लिए और एक वायुसंचरण के लिए रखे। ग्रीष्मकाल दहि-तेल्लाई उभयं, पय-सोवीराउ होंति उविरुद्धा। में दो भाग अशन-व्यंजन के लिए, तीन भाग पानी के लिए देहस्स विरुद्धं पुण, सी-उण्हाणं समाओगो॥ और एक भाग वायु-प्रविचरण के लिए हो।) (बृभा २०९४, २०९५) यह आहारविधि सर्वभावदर्शी सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित पालक का शाक और लट्टाशाक (कौसुम्भ शालनक) है। जिससे धर्महेतु अवश्यकरणीय योगों की हानि न हो, इनको परस्पर मिलाने से सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होती है। उतनी मात्रा में आहार करना विहित है। मूंग आदि दालों के साथ कच्चा दूध मिलाने से अतिशीघ्र ८. अति आहार से हानि : कटाह दृष्टांत जीवों की उत्पत्ति होती है, जिससे संयमविराधना और अतिभुत्ते उग्गालो, तेणोमं भुंज जण्ण उग्गिलसि। आत्मविराधना होती है। छड्डिजति अतिपुण्णा, तत्ता लोही ण पुण ओमा॥ दही और तैल, दूध और कांजी परस्पर विरुद्ध द्रव्य हैं। शीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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