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________________ आगम विषय कोश-२ आलोचना प्रारंभ कर चुके हों, उसी समय कोई अतिथि सांभोजिक वहां जब शिष्य और प्रतीच्छक सब भिक्षा के लिए या पहुंच जाये तो वह अतिथि मुनि ओघ (सामान्य रूप से संक्षेप विचारभूमि में या अन्य प्रयोजन से बाहर गए हुए हों, तब में) आलोचना करे। पांच दिन यावत् भिन्न-मासपर्यंत अकेले आचार्य के पास स्पर्धकस्वामी आलोचना करते हैं। प्रायश्चित्त-योग्य अपराध हो तो ओघ आलोचना कर एक कुछ आचार्य ऐसा मानते हैं कि स्पर्धकपति को अपने साथ मंडली में आहार करे। आए हुए साधुओं के सामने आलोचना करनी चाहिए, जिससे मूल या उत्तर गुणों में अल्प अतिचार लगने के कारण जो कुछ विस्मृत हुआ हो, वे उसकी स्मृति दिला सकें। अथवा भोजनकाल होने पर ओघ आलोचना की जाती है। ० महाव्रत-गप्ति-समिति-अतिचार आलोचना यह एक दैवसिकी होती है-दिन में ही की जाती है। पार्श्वस्थ मूलगुण पढमकाया, तत्थ वि पढमं तु पंथमादीसु। आदि के साथ आहार आदि का आदान-प्रदान-संप्रयोग करने पाद अपमज्जणादी, बितिए उल्लादि पंथे वा॥ पर ओघ आलोचना की जाती है। ततिए पतिट्ठियादी, अभिधारणवीयणादि वाउम्मि। ० विभाग विहार आलोचना-भिन्न मास से अधिक प्रायश्चित्त बीयादिघट्ट पंचम, इंदिय अणुवायतो छ8॥ योग्य अपराध हो तो एक मंडली में आहार न करे। पृथक् दुब्भासिय हसितादी, बितिए ततिए अजाइउग्गहणं। आहार कर विभाग (विस्तार से) आलोचना करे। घट्टणपुव्वरतादी, इंदिय-आलोय मेहुण्णे॥ __अग्निसंभ्रम आदि कारण हो या सार्थ के साथ विहार मुच्छातिरित्त पंचम, छटे लेवाड अगद-सुंठादी। कर रहे हों, मार्ग में सार्थसन्निवेश में कोई मुनि आए, सार्थ गुत्ति-समिती विवक्खा, अणेसिगहणुत्तरगुणेसु॥ जल्दी प्रस्थान करने वाला हो अथवा पात्र कम हों तो आगंतुक संतम्मि वि बलविरिए, तवोवहाणम्मि जं न उज्जमियं। मुनि ओघ आलोचना कर एक साथ (भोजन-मंडली में) एस विहारवियडणा ............ आहार करे, तत्पश्चात् विभाग आलोचना करे। (व्यभा २४०-२४४) विभाग आलोचना दिन में या रात में कभी भी की जा आलोचना करते समय सबसे पहले प्रथम महाव्रत सकती है। यह एक या अनेक दैवसिकी होती है क्योंकि संबंधी आलोचना करनी चाहिए। इसका विषय है-छह इसमें अपराध की बहुलता होती है। जीवनिकाय । प्रथम पृथ्वीकाय संबंधी आलोचना हो। यथा० उत्कृष्ट काल पृथ्वीकाय-मार्ग में चलते समय अस्थण्डिल से स्थण्डिल में, पक्खिय चउ संवच्छर, उक्कोसं बारसण्ह वरिसाणं। स्थण्डिल से अस्थण्डिल में, काली मिट्टी से नीली मिट्टी में, समणुण्णा आयरिया, फड्डगपतिया य विगडेंति॥ नीली मिट्टी से काली मिट्टी में संक्रमण करते हुए पैरों का भिक्खादिनिग्गएसुं, रहिते विगडेंति फड्डगवईओ। प्रमार्जन न किया हो, सचित्त रजों से संसृष्ट हाथ या पात्रक से सव्वसमक्खं केई, ते वीसरियं तु सारेंति॥ भिक्षा ग्रहण की हो-इस प्रकार पृथ्वीकाय विराधना की (व्यभा २३४, २३९) आलोचना करे।। समनोज्ञ (जिनकी सामाचारी एक हो, वे) आचार्य अप्काय-उदक से आई या स्निग्ध हाथ आदि से भिक्षा ली परस्पर तथा स्पर्धकपति एवं अन्य सब साधु अपने मूल हो, मार्ग में अयतना से जल को पार किया हो। आचार्य के पास पाक्षिक आलोचना करें। दूरी आदि किसी तेजस्काय-अग्नि पर प्रतिष्ठित या परस्पर प्रतिष्ठित भक्तपान कारणवश पाक्षिक आलोचना न हो सके तो चातुर्मासिक ग्रहण किया हो, ज्योति वाली वसति में रहे हों इत्यादि। आलोचना अवश्य करें। वह भी न हो तो सांवत्सरिक और वायुकाय-शरीर, भक्तपान आदि पर पंखे से हवा की हो, वह भी न हो तो उत्कृष्टतः बारह वर्ष हो जाने पर दूर से गर्मी से पीड़ित हो वायु के सम्मुख अभिसंधारण किया हो। आकर भी आलोचना अवश्य कर लेनी चाहिए। वनस्पतिकाय-बीज आदि का संघद्रन-ग्रहण किया हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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