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________________ आगम विषय कोश-२ आचार्य दही के घड़ों के पास बैठ जाओ। फिर राजा ने कुमारों को २५. सापेक्ष-निरपेक्ष राजा और आचार्य बुलाकर कहा--जाओ, दही से भरा एक-एक घड़ा ले आओ। दिद्रुतो जध राया, सावेक्खो खलु तधेव निरवेक्खो। कुमार गए। इधर-उधर देखा। घड़ों को वहन कर ले जाने सावेक्खो जुगनरिंद, ठवेति इय गच्छुवज्झायं। वाला कोई न दीखा, तब वे स्वयं एक-एक घड़ा उठाकर (व्यभा १३०१) - चले। एक कुमार घड़ों के पास गया। सभी ओर देखा, पर राजा के दो प्रकार हैंघड़ा उठाने वाला एक भी नजर नहीं आया, तब उसने ० सापेक्ष-अपने जीवन काल में युवराज स्थापित करने अमात्य से कहा-दही के घड़े को उठाओ। अमात्य उठाना वाला राजा। इससे राजा के कालगत होने पर भी राज्य नहीं चाहता था। कुमार ने म्यान से तलवार निकालते हुए व्यवस्थित रूप से अनवर्तित-प्रवर्तित होता है। कहा-यदि घड़े को उठाने की इच्छा नहीं है, तो मैं अभी निरपेक्ष-जो राजा युवराज नहीं बनाता. उसका राज्य विनष्ट तुम्हारा सिरच्छेद कर देता हूं। अमात्य डरा और दही का घड़ा हो जाता है। उठाकर चला। कुमार उसको लेकर राजा के पास गया। राजा __ इसी प्रकार आचार्य भी दो प्रकार के होते हैंने उस शक्तिशाली कुमार का राज्याभिषेक कर दिया। सापेक्ष-अपने जीवनकाल में अन्य गणनायक को स्थापित २४. इत्वरिक-यावत्कथिक आचार्य की स्थापना करने वाला आचार्य। इससे आचार्य के कालगत होने पर भी गणधरपाउग्गाऽसति, पमादअदावि एव कालगते। गण खिन्न या छिन्न-भिन्न नहीं होता। थेराण पगासेंति, जावऽन्नो ण ठावितो तत्थ॥ ० निरपेक्ष-अपने जीवनकाल में भावी आचार्य को स्थापित परिकामं कणमाणो, मरणस्सऽभजयस्स व विहारो. नहीं करने वाला आचार्य। (व्यभा १३०२, १३०५) २६. सापेक्ष द्वारा भावी आचार्य की प्रतिष्ठा : दो दृष्टांत दो कारणों से इत्वरिक (अल्पकाल के लिए) आचार्य सावेक्खो सीसगणं, संगह कारेति आणुपुव्वीए। स्थापित किया जाता है पाडिच्छ आगते त्ति व, एस वियाणे अह महल्लो॥ • गणधर (आचार्य) पद के योग्य कोई साध न हो। जह राया व कुमार, रज्जे ठावेउमिच्छते जं तु। ० प्रमाद से अभिनव आचार्य बनाये बिना ही पूर्व आचार्य भड जोधे वेति तगं, सेवह तुब्भे कुमारं ति॥ कालधर्म को प्राप्त हो गये हों। अहयं अतीमहल्लो, तेसिं वित्ती उ तेण दावेति। जो इत्वरिक आचार्य स्थापित करते हैं, वे गच्छ के सो पुण परिक्खिऊणं, इमेण विहिणा उ ठावेति॥ स्थविरों के समक्ष यह प्रकशित करते हैं कि जब तक मूल परमन्न भुंज सुणगा, छड्डण दंडेण वारणं बितिए। आचार्य पद पर अन्य स्थापित नहीं होता है. तब तक ही यह भुंजति देति य ततिओ, तस्स उ दाणं न इतरेसिं॥ आपका आचार्य है। परबलपेल्लिउनासति, बितिओदाणंन देति तु भडाणं। यावत्कथिक आचार्य-स्थापना के दो हेत हैं न वि जुज्जंते ते ऊ, एते दो वी अणरिहाओ॥ ० अभ्युद्यतमरण के लिए आचार्य द्वादशवर्षीय संलेखना रूप ततिओ रक्खति कोसं, देति यभिच्चाण ते य जुझंति। परिकर्म कर रहे हों। पालेतव्वो अरिहो, रज्जं तो तस्स तं दिण्णं॥ ० अभ्युद्यतविहार (जिनकल्प आदि) के लिए आचार्य (व्यभा १९३५-१९४०) तपोभावना आदि रूप परिकर्म कर रहे हों। सापेक्ष आचार्य अभिनव स्थापित गणधर को आनपर्वी ० आचार्य मोहचिकित्सा या रोगचिकित्सा कर रहे हों। कथन आदि द्वारा प्रतिष्ठित करते हैं (यथा- 'पहले सुधर्मा ०किसी प्रयोजनविशेष से अवधावन कर रहे हों। गणधर थे, फिर क्रमश: जम्बूस्वामी. प्रभव आदि हए, अब मैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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