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________________ आगम विषय कोश- २ शिष्य अपने कल्याणकारी ऋजुमना आचार्य के वे सब कार्य करते हैं, जिनसे योगों का संधान हो सके। आचार्य के योगों की हानि न हो, वैसा कार्य करते हैं । २०. अतिशयों की उपजीविता : आर्यसमुद्रदृष्टांत एते पुण अतिसेसे, णोजीवे वावि को वि दढदेहो । निदरिसणं एत्थ भवे, अज्जसमुद्दा य मंगू य ॥ अज्जसमुद्दा दुब्बल, कितिकम्मा तिण्णि तस्स कीरंति । सुत्तत्थपोरिसि समुट्ठियाण ततियं तु चरमाए ॥ सडकुलेसु य तेसिं, दोच्चंगादी उ वीसु घेप्पंति । मंगुस्स य कितिकम्मं, न य वीसुं घेप्पते किंची ॥ बेंति ततो णं सड्ढा, तुज्झ वि वीसुं न घेप्पते कीस । तो बेंति अज्जमंगू, तुब्भेच्चिय एत्थ दिट्टंतो ॥ जा भंडी दुब्बलाउ, तं तुब्भे बंधहा पयत्तेण । विबंध बलिया ऊ, दुब्बलबलिए व कुंडी वि ॥ एवं अज्जसमुद्दा, दुब्बलभंडी व संठवणयाए । धारंति सरीरं तू, बलि भंडीसरिसग वयं तु ॥ निप्पडिकम्मो वि अहं, जोगाण तरामि संधणं काउं । नेच्छामि य बितियंगे, वीसुं इति बेंति ते मंगू ॥ न तरंती तेण विणा, अज्जसमुद्दा उ तेण वीसं तु । इय अतिसेसायरिए, सेसा पंतेण लाढेंती ॥ (व्यभा २६८५ - २६९२ ) ७९ आचार्य उत्कृष्ट भक्तपान आदि अतिशयों के उपजीवी होते हैं किन्तु जिनका शरीर सुदृढ़ होता है, वे इन अतिशयों का भोग नहीं भी करते हैं। आर्य समुद्र और आर्य मंगु इसके निदर्शन हैं। आर्य समुद्र - ये देह से दुर्बल थे। इनके विश्रामणा रूप तीन कृतिकर्म किए जाते थे— प्रथम - सूत्रपौरुषी की सम्पन्नता पर । द्वितीय- अर्थपौरुषी की सम्पन्नता पर । तृतीय- कालप्रतिक्रमण के पश्चात् चरम पौरुषी में । साधु श्राद्धकुलों से उनके योग्य ओदन, शाक, तीमन आदि पृथक् पात्र में ग्रहण करते थे ! आर्य मंगु - इनके न कृतिकर्म किया जाता था, न पृथक् पात्र में भिक्षा लायी जाती थी । Jain Education International आचार्य o भण्डी और कुण्डी दृष्टांत - एक बार दोनों आचार्य सोपारक नगर में समवसृत हुए। वहां के शाकटिक और वैकटिक (सुरासंधानकारी ) – दोनों श्रावकों के मन में जिज्ञासा हुई और उन्होंने आर्य मंगु से पूछा- आर्य समुद्र की भांति आपके प्रायोग्य पुद्गल पृथक् पात्र में क्यों नहीं लाये जाते ? आर्य मंगु ने कहा- इस सन्दर्भ में तुम ही उदाहरण हो। सुनोशाकटिक! तुम्हारी गाड़ी यदि दुर्बल है, तो तुम उसे प्रयत्नपूर्वक बांधते हो, अन्यथा वह पार नहीं पहुंचा सकती। मजबूत गाड़ी बिना बांधे ही भार वहन कर लेती है। वैकटिक! तुम दुर्बल कुंडी को बांस के सींकचों या खपाचियों से बांधकर उसमें सुरा डालते हो। मजबूत कुंडी को नहीं बांधते । इसी प्रकार आर्य समुद्र दुर्बल भंडी व कुण्डी सदृश अपने शरीर को उचित आहार, परिकर्म आदि से संस्थापित करते हैं। हम तो सुदृढ़ भंडीसदृश हैं। हमें शरीरसंस्थापना की अपेक्षा नहीं है। निष्प्रतिकर्म रहते हुए भी मैं योगसंधान में समर्थ हूं, आर्य समुद्र समर्थ नहीं हैं। पृथक् पात्र में आहार ग्रहण का रहस्य यही है । शेष साधु बिना किसी अतिशय के अन्तप्रान्त भिक्षा से जीवनयापन करते हैं- संयमयात्रा का निर्वाह करते हैं। २१. आचार्य लक्षणसम्पन्न : कुमार दृष्टांत तिणी जस्सय पुण्णा, वासा पुण्णेहि वा तिहि उतं तु । वासेहि निरुद्धेहिं, लक्खणजुत्तं पसंसंति ॥ किं अम्ह लक्खणेहिं, तवसंजमसुट्ठियाण समणाणं । गच्छविवड्ढिनिमित्तं इच्छिज्जति सो जहा कुमरो ॥ बहुपुत्तओ नरवती, सामुद्दं भणति कं ठवेमि निवं । दोस- गुण एगऽणेगे, सो वि य तेसिं परिकधेति ॥ निद्धूमगं च डमरं, मारी - दुब्भिक्ख-चोर-पउराई । धण-धन्न - कोसहाणी, बलवति पच्चंतरायाणो ॥ खेमं सिवं सुभिक्खं, निरुवस्सग्गं गुणेहि उववेतं । अभिसिंचंति कुमारं गच्छे वि तयाणुरूवं तु ॥ (व्यभा १५६२-१५६६) किसी लक्षणसम्पन्न मुनि के व्रतपर्याय के तीन वर्ष पूर्ण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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