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________________ आचार्य ७८ आगम विषय कोश-२ उप्पण्णणाणा जह णो अडंती, चोत्तीसबुद्धातिसया जिणिंदा। गंभीरो मद्दवितो, अब्भुवगतवच्छलो सिवो सोमो। एवं गणी अट्ठगुणोववेतो, सत्था व नो हिंडती इड्डिमं तु॥ विच्छिण्णकुलुप्पण्णो, दाया य कतण्णु तह सुतवं॥ आलोगो तिन्निवारे, गोणीण जधा तधेव गच्छे वि" खंतादिगुणोवेओ, पहाणणाण-तव-संजमावसहो। मा आवस्सयहाणी, करेन्ज भिक्खालसा व अच्छेज्जा" एमादि संतगुरुगुणविकत्थणं संसणातिसए॥ हिंडंतो उव्वातो, सुत्तत्थाणं च गच्छपरिहाणी।'' संतगुणुक्कित्तणया, अवण्णवादीण चेव पडिघातो। सुत्तत्थाणं गुणणं, विज्जा मंता निमित्तजोगाणं। अवि होज्ज संसईणं, पुच्छभिगमे दुविधलंभो॥ वीसत्थे पतिरिक्के, परिजिणति रहस्ससुत्ते य॥ कर-चरण-नयण-दसणाइ,धोव्वणं पंचमोउअतिसेसोr (व्यभा २५६७, २५७१, २५७७-२५७९, २६००) .."अग्गि-मति-वाणिपडुया, होति अणोत्तप्पयाचेव॥ आचार्य गण में आबालवृद्ध के आधार होते हैं। उनका (व्यभा २६७४-२६७६, २६७९-२६८३) अतिशायी प्रभुत्व होता है। केवलज्ञान उत्पन्न होने पर चौंतीस आचार्य के पांच अन्य अतिशय भी हैंअतिशयसम्पन्न अर्हत् भिक्षाटन नहीं करते। इसी प्रकार अष्ट १. उत्कृष्ट भक्त-जो आचार्य के कालानुकूल और स्वभावागणिसम्पदा से सम्पन्न, शास्ता की भांति ऋद्धिमान् आचार्य नकल हो, वैसा भोजन देना। भिक्षाटन नहीं करते। २. उत्कृष्ट पान-जिस क्षेत्र या काल में जो उत्कृष्ट पेय हो, जैसे ग्वाला प्रातः चराने ले जाते समय, मध्याह्न में होता। छाया में बैठी हुई और सायं घर लौटती हुई गायों का ३. प्रक्षालन-मलिन वस्त्रों का प्रक्षालन करना। अवलोकन करता है, वैसे ही आचार्य प्रातः, मध्याह्न और ४. प्रशंसन-गुणोत्कीर्तन करना। यथा-हमारे आचार्य गंभीर विकाल वेला में गण का अवलोकन करते हैं। (अपरिश्रावी), मृदुमार्दव, शिष्यवत्सल, निरुपद्रव, सौम्य, यदि आचार्य गोचरचर्या में लग जाते हैं, तो प्रमादि शिष्यों के अवश्यकरणीय योगों की हानि होती है। वे भिक्षाटन कुलीन, दाता, कृतज्ञ, श्रुतसम्पन्न, क्षमा आदि गुणों से उपेत, में आलसी बन जाते हैं। ज्ञानप्रधान (अतिशय-ज्ञानी) और तप-संयम के आलय हैंभिक्षाटन काल में आचार्य को महान कायक्लेश होता इस प्रकार गुरु के सद्भूत सद्गुणों की उत्कीर्तना करना है। परिश्रांतता के कारण वे वाचना नहीं दे पाते हैं, इससे प्रशंसन अतिशय है। सद्गुणों की उत्कीर्तना से महान् निर्जरा शिष्यों और प्रतीच्छकों के सत्रार्थ की परिहानि होती है। होती है, अवर्णवादियों का प्रतिघात होता है तथा महान श्रतलाभ के अभाव में वे गच्छांतर में चले जाते हैं, तो गच्छ ज्ञानी-गुणी आचार्य के बारे में सुनकर राजा, मंत्री, विद्वान की हानि होती है। आदि विशिष्ट व्यक्ति आकृष्ट होते हैं और जिज्ञासा-समाधान आचार्य सूत्र-अर्थ, विद्या-मंत्र, निमित्तशास्त्र, योगशास्त्र के लिए उनका आगमन होता है। समाहित होकर वे साधुधर्म आदि का परावर्तन करते हैं। वे आश्वस्त-विश्वस्त होकर रहस्यसूत्रों का एकांत प्रदेश में अभ्यास करते हैं-उन्हें आत्मसात् ५. शौच-हाथ, पैर, नयन, दांत आदि की शुद्धि। मुख और करते हैं। भिक्षाटन इन सबमें व्याघात उपस्थित करता है। दांत को धोने से जठराग्नि की प्रबलता होती है। आंख और इसलिए उनके लिए भिक्षाटन उचित नहीं है। पैर धोने से बुद्धि और वाणी की पटुता बढ़ती है तथा शरीर १९. अन्य पांच अतिशय : शिष्यों द्वारा सम्पादित का सौन्दर्य वृद्धिंगत होता है। अन्ने विअस्थि भणिता, अतिसेसा पंचहोंति आयरिए. ० योगसंधान : शिष्यों की जागरूकता भत्ते पाणे धोव्वण, पसंसणा हत्थ-पायसोए य। असढस्स जेण जोगाण, संधणं जध उ होति थेरस्स। कालसभावाणुमतं, भत्तं पाणं च अच्चितं खेत्ते। तं तह करेंति तस्स उ, जध से जोगा न हायंति॥ मलिणमलिणा य जाता, चोलादी तस्स धुव्वंति॥ (व्यभा २६८४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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