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________________ आचार्य ७० जो इन उपकरण आदि स्थानों में आचार्यपदनियुक्ति से पूर्व भी जो सदा समुद्यत रहते थे, वे आचार्य बनने के पश्चात् भी इन स्थानों में विषण्ण नहीं होते, पूर्व अभ्यास के कारण खेद - खिन्न नहीं होते। ऐसे आचार्य ही दूसरे साधुओं को इन स्थानों में नियोजित करने में समर्थ होते हैं । गीतमगीता बहवो, गीतत्थसलक्खणा उ जे तत्थ । सिं दिसाउ दाउ, वितरति सेसे जहरिहं तु ॥ मूलायरि राइणिओ, अणुसरिसो तस्स होउवज्झाओ। गीतमगीता सेसा, सज्झिलगा होंति सीसाहा ॥ राइणिया गीतत्था, अलद्धिया धारयंति पुव्वदिसं । अपहुव्वंत सलक्खण, केवलमेगे दिसाबंधो ॥ सीसे य पहुव्वंत, सव्वेसि तेसि होति दायव्वा । अपहुप्पंतेसुं पुण केवलमेगे दिसाबंधो ॥ अच्चित्तं च जहरिहं, दिज्जति तेसुं च बहुसु गीतेसु । एस विधी अक्खातो, अग्गीतेसुं इमो उ विधी ॥ अरिहं व अनिम्माउं, णाउं थेरा भणंति जो ठवितो । एतं गीतं काउं, देज्जाहि दिसिं अणुदिसिं वा ॥ सो निम्माविय ठवितो, अच्छति जदि तेण सह ठितो लद्धं । अह न वि चिट्ठति तहियं, संघाडो तो सि दायव्वो । (व्यभा १३२३ - १३२९) गच्छ में अनेक साधु गीतार्थ और अगीतार्थ होते हैं । उनमें जो आचार्यपद योग्य हों, लक्षणसम्पन्न हों, रानिक हों, संग्रह - उपग्रह की लब्धि से सम्पन्न हों, उन्हें दिशा (आचार्य पद) देकर शेष साधुओं को यथायोग्य (अनुरत्नाधिक आदि ) पद प्रदान किये जाते हैं । जो रानिक (दीक्षापर्याय में बड़े) और गीतार्थ हैं किन्तु लब्धिसम्पन्न नहीं हैं, वे पूर्वदिशा (पूर्वाचार्य द्वारा प्रदत्त दिशा अनुरत्नाधिकत्व आदि) को धारण करते हैं । उन्हें आचार्य या उपाध्याय पद पर आरोपित नहीं किया जाता। अनेक आचार्य वहां होते हैं, जहां बहुत साधु होते हैं। प्रत्येक आचार्य के साधु-परिवार की संख्या अपर्याप्त हो तो वहां केवल एक उसी को ही आचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया जाता है, जो आचार्य के लक्षणों से सम्पन्न होता है। शेष सब Jain Education International साधु शिष्यत्व से अनुबंधित होते हैं । उपाध्याय मूल आचार्य के अनुरूप तथा शेष गीतार्थ अनुरत्नाधिक और अगीतार्थ शिष्य होते हैं । ० उपकरण वितरण - आचार्यपद पर स्थापित गीतार्थों को यथायोग्य वस्त्र, पात्र आदि उपकरण वितरित किए जाते हैं । • आचार्य पद योग्य शिष्य का निष्पादन- जो आचार्यपद योग्य है, किन्तु अभी तक अगीतार्थ है, उसके लिए स्थविर (वृद्धाचार्य) तत्काल स्थापित आचार्य को निवेदन करते हैं- भंते! अमुक साधु को गीतार्थ बनाकर दिशा या अनुदिशा (आचार्य या उपाध्याय पद) प्रदान करें।' इस निवेदन पर आचार्य उसे सूत्र - अर्थ में निष्पन्न कर आचार्यपद पर स्थापित करते हैं । वह नव स्थापित आचार्य गुरु के साथ रहना चाहे तो गुरु के साथ रहे, स्वतंत्र विहार करना चाहे तो उसे एक संघटक समर्पित किया जाता है। ( वह गणधर द्वारा प्रदत्त दो-तीन सहयोगियों और पूर्व आचार्य द्वारा प्रदत्त वैयावृत्त्यकर को पढ़ाता है। उसके पास अभिनव प्रव्रजित साधु भी उसी के शिष्य होते हैं ।) आगम विषय कोश - २ १०. आचार्य आदि पद : न्यूनतम संयमपर्याय- श्रुत तिवासपरियाए समणे निग्गंथे आयारकुसले, संजमकुसले, पवयणकुसले, पण्णत्तिकुसले, संगहकुसले, उग्गहकुसले अक्खयायारे असबलायारे अभिन्नायारे असंकिलिट्ठायारे बहुस्सुए बब्भागमे जहण्णेणं आयारपकप्पधरे कप्पइ उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए ॥ पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे "जहण्णेणं दसाकप्पववहारधरे कप्पड़ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए ॥ अवासपरियाए समणे निग्गंथे जहण्णेणं ठाणसमवायधरे कप्पड़ आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए पवत्तित्ताए थेरत्ताए गणित्ताए गणावच्छेइयत्ताए उद्दिसित्तए ॥ (व्य ३/३, ५, ७) आधाकम्मुद्देसिय परिहरति असण-पाणं, सेज्जोवधिपूति-संकितं मीसं । अक्खुतमसबलमभिन्नऽसंकिलिट्ठमावासए जुत्तो ॥ आवश्यके युक्तः स्थापितादिपरिहारी अक्षता For Private & Personal Use Only **************** ************** www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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