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________________ आगम विषय कोश-२ आचार्य पास शंकानिवारण करे क्योंकि इत्वर आचार्य पद पर स्थापित जो शिष्य जिस लब्धि से सम्पन्न होता है, आचार्य साधु अनेकपाक्षिक है-उसकी वाचना भिन्न है। उसे उसी कार्य में नियोजित करते हैं। यथा-जो उपकरण० गच्छवासी आचार्य प्रयोजनवश अन्यत्र गए हुए हैं तो अन्य। उत्पादन में कुशल है, उसे उपकरण-ग्रहण में, सूत्रपाठ और साधु वाचना के अभाव में जिज्ञासा हेतु गच्छांतर में चले जाते अर्थग्रहण की लब्धि से सम्पन्न को सूत्रपाठ और अर्थग्रहण हैं, इससे गणभेद होता है। में, वादलब्धियुक्त को परवादीमथन में, धर्मकथाकुशल को ० स्थापित यावत्कथिक आचार्य भिन्न वाचना के कारण धर्मकथन में तथा पटू परिचारक को ग्लानसेवा में नियुक्त विस्मृत आलापकों का संधान नहीं कर सकता। करता है। इस प्रकार जैसे-जैसे शिष्यों को यथोचित कार्यों में ० अल्पश्रुत को भी श्रुत से अनेकपाक्षिक कहा गया है, वह व्याप्त करने से प्रवृत्ति या प्रयोजन की हानि नहीं होती, अल्पाधार (अल्पसूत्रार्थ ज्ञाता) होता है, इसलिए शिष्यों के वैसे-वैसे गण की श्रीवृद्धि होती है और उसी रूप में निर्जरा प्रश्न का समाधान दूसरों को पूछकर देता है। की परिवृद्धि होती है। गणांतर में जाकर पछने से गणांतरवर्ती आचार्य गीतार्थ दुविधेण संगहेणं, गच्छं संगिण्हते महाभागो। अगीतार्थ शिष्यों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं। तो विण्णवेति ते वी, तं चेव य ठाणयं अम्हं॥ प्रव्रज्या से अनेकपाक्षिक के दोष-अन्य गण की प्रव्रज्या उवगरण बालवुड्डा, खमग गिलाणे य धम्मकधिवादी। वाला साधु आचार्य बनता है तो दोनों का परस्पर अनात्मीय गुरुचिंत वायणा-पेसणेसु कितिकम्मकरणे य॥ भाव होता है-आचार्य साधुओं को और साधु आचार्य को एतेसुं ठाणेसुं, जो आसि समुज्जतो अठवितो वि। पराया समझते हैं। ० अनाभाव्य सचित्त आदि का ग्रहण होने पर नियमतः कलह ठवितो वि य न विसीदति, स ठावितुमलं खलु परेसिं॥ होता है। (व्यभा १९४२-१९४४) ० दीर्घकाल तक भी जब आत्मीयता का अध्यवसाय निर्मित नव अभिषिक्त महाभाग आचार्य दो प्रकार से गच्छ नहीं होता है तो उस गण में भेद उत्पन्न हो जाता है। का संग्रहण करते हैं अतः श्रुत-प्रव्रज्या से एकपाक्षिक आचार्य के अभाव में द्रव्य संग्रह-वस्त्र, पात्र आदि। ततीय भंगवर्ती को आचार्यपद पर स्थापित कर उसे शीघ्र भाव संग्रह-ज्ञान आदि द्वारा संग्रहण। सूत्रार्थ में निष्पादित करना चाहिए। इसके अभाव में द्वितीय गच्छ के साधु बद्धांजलि हो विज्ञप्ति करते हैं-भंते ! भंगवर्ती और उसके भी अभाव में चतुर्थ भंगवर्ती आचार्य हमारी अपने-अपने स्थान पर पुनः नियुक्ति करें। वे स्थान ये स्थापनीय है। जो प्रकृति से मृदुस्वभावी है, जिसकी प्रकृति समस्त ० उपकरण-उपकरणों के उत्पादन कार्य में नियुक्त। गच्छ द्वारा मान्य है और जो विनीत है, उसे आत्मीय जानकर ० वैयावृत्त्य-बाल, वृद्ध, तपस्वी या ग्लान की वैयावृत्त्य में अनेकपाक्षिक होने पर भी गण में आचार्य पद पर स्थापित किया जाता है। ० धर्मकथा-धर्मकथा करने में नियुक्त। ९. नवनिर्वाचित आचार्य का दायित्व ० वाद-पर-वादों के निरसन में निरत। जो जाए लद्धीए, उववेतो तत्थ तं नियोएति। • गुरुचिंता--गुरुसेवा में नियुक्त, गुरु के प्रत्येक कार्य को उवकरणसुते अत्थे, वादे कहणे गिलाणे य॥ जिम्मेवारी से करने वाला। जध जध वावारयते, जधा य वावारिता न हीयंति। वाचना-वाचनाचार्य के पद पर नियुक्त। तध तध गणपरिवुड्डी, निजरवुड्डी वि एमेव॥ . प्रेषण-मुनियों को यत्र-तत्र प्रेषण कार्यों में नियुक्त। (व्यभा १४११, १४१२) ० कृतिकर्मकरण-विश्रामणा आदि कार्यों में नियुक्त। नियुक्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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