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________________ सिद्ध सिद्धों को वैसा सुख प्राप्त होता है, जिसके लिए संसार में कोई उपमा नहीं है । नवि अत्थि माणुसणं तं सुक्खं नेव जं सिद्धाणं सुक्खं अव्वाबाहं सुरगणसुहं सम्मत्तं न य पावइ सव्वदेवाणं । उवगाणं ॥ सव्वद्धापिडिअं अनंतगुणं । मुत्तिसुहंडणंताहिवि वग्गवग्गूहि || ( आवनि ९८०,९८१) सिद्धों को जैसा अव्याबाघ सुख प्राप्त है वैसा सुख सभी देवों और मनुष्यों को प्राप्त नहीं है । देवताओं के यदि तीनों काल के समस्त सुख को पिंडीभूत कर लिया जाए तो भी वह मोक्षसुख के अनन्तवें भाग जितना भी नहीं है । जह नाम कोई मिच्छो नगरगुणे बहुविहे न चएइ परिकहेउं उवमाइ तहि ७०८ विआणतो । असंतीए ॥ ( आवनि ९५३ ) एक म्लेच्छ नगर में गया और राज- प्रासाद में कुछ दिन रहा। फिर वह अपनी बस्ती में आ गया । स्वजनों ने 'पूछा- नगर कैसा था ? राजप्रासाद कैसा था ? उसने कहा- मैं वहां की विपुल सुखसुविधाओं को जानता हूं, किंतु मेरे पास ऐसे शब्द या ऐसी उपमा नहीं है, जिससे कुछ बता सकूं । इसी प्रकार मोक्ष का सुख अनुपम है । १०. सिद्ध अनादि हैं। भवओ सिद्धो त्ति मई तेणाइमसिद्धसंभवो जुत्तो । कलाणाइत्तणओ, पढमसरीरं व तदजुत्तं ॥ ( विभा १८५९ ) संसार से मुक्त आत्मा ही सिद्ध होती है । अतः कोई आदिसिद्ध होना चाहिए। किन्तु सिद्ध अनादि हैं। वैसे तो प्रत्येक शरीर और दिनरात की भी किन्तु काल अनादि होने से शरीर या दिन को नहीं जाना जा सकता। इसी प्रकार नहीं जाना जा सकता । काल अनादि होने अनादि हैं । एगतेण साईया, अणाईया, Jain Education International अपज्जवसिया वि य । अपज्जवसिया विय ॥ ( उ ३६ ६५ ) एक-एक की अपेक्षा से सिद्ध सादि-अनन्त और बहुत्व की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं । आदि होती है। रात की आदि आदिसिद्ध भी से सिद्ध भी सिद्धों की ऊर्ध्वगति ११. सिद्धों की ऊर्ध्वगति .....उज्जुसेढिपत्ते अफुसमाणगई उड्ढं एगसम एवं अविग्गणं तत्थ गन्ता सागारोवउत्ते सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंत करेइ । ( उ २९/७४) जीव मोक्ष स्थान में पहुंच साकारोपयोग (ज्ञानप्रवृत्ति काल ) में सिद्ध होता है, प्रशान्त होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वृत होता है और सब दुःखों का अन्त करता है । सिद्ध होने से पूर्व वह ऋजुश्रेणी ( आकाशप्रदेशों की सीधी पंक्ति) से गति करता है । उसकी गति अस्पृशद् ( मध्यवर्ती आकाश प्रदेशों का स्पर्श किए बिना ) तथा ऊपर की ओर होती है। वह एक समय की होती है— ऋजु होती है । रिउसेढीपडिवन्नो समयपएसंतरं अफुसमाणो । एगसमएण सिज्झइ अह सागारोवउत्तो सो ॥ ( विभा ३०८८ ) सिद्ध होने वाले जीव साकारोपयोगयुक्त और ऋजु श्रेणीप्रतिपन्न होते हैं । वे अस्पृशद्गति से एक समय में सिद्धगति को प्राप्त कर लेते हैं । वे समयान्तर और प्रदेशान्तर - अवगाढ प्रदेशों के अतिरिक्त आकाशप्रदेशों का स्पर्श नहीं करते । उड्ढगइहेउउ च्चिय नाही तिरियगमणं नवाचलया । सविसेसपच्चयाभावओ य सव्वन्नुमयओ य ॥ (विभा ३१५३ ) मुक्त आत्मा का स्वभाव है - ऊर्ध्वगति करना । न वह यहीं अचल रहती है, न नीची गति करती है, न तिरछी पूर्वी आदि कर्मों का अभाव है । गति करती है, क्योंकि उसमें विशेष निमित्त - नरकानु लाउअ एरंडफले अग्गी धूमे उसू धणुविमुक्के | as gauओगेणं एवं सिद्धाण वि गईओ ॥ ( आवनि ९५७ ) जह मिल्लेवावगमादलाबुणोऽवस्समेव गइभावो ।'''' तह कम्मले विगमे गइभावोऽवस्समेव सिद्धस्स ।'''' जह वा कुलालचक्कं किरियाहेउविरमे वि सक्किरियं । पुब्वप्पओगओ च्चिय तह किरिया मुच्चमाणस्स || ( विभा ३१४२ - ३१५० ) उड्गइत्ति अहुणा अगुरुलहुत्ता सभावउड्ढगई । दिट्ठतला उएणं एरंडफलाइएहिं च "I (दभा ५३ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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