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________________ स्वामी एकेन्द्रिय में श्रुत ६५५ संज्ञा आंतरिक उत्तेजना से होती है । देखें-ठाणं १०।१०५ अभिहित नहीं हो सकता । मूर्त्तता रूप है, पर उसके होने का टिप्पण। मात्र से कोई रूपवान् नहीं हो सकता। धनवान् वह होता आचारांग निर्यक्ति गाथा ३९ में इन दस संज्ञाओं के है जो प्रभूत धन का स्वामी होता है। रूपवान वह होता अतिरिक्त ये चार संज्ञाएं और प्राप्त होती हैं-सुख-दुःख है जिसका आकार-प्रत्याकार मनमोहक होता है। संज्ञा, मोह संज्ञा, विचिकित्सा संज्ञा और धर्म संज्ञा)। एगिदियाणं ओहसण्णा चेव अतो ते असण्णी चेव, तेहितो बेइंदियाइ जाव सम्मुच्छिमपंचेंदी एते विसिट्टतर३. संज्ञा (ज्ञानात्मक) के स्वामी सण्णाए हेतुवायसण्णी भणिता, कालितोवदेसं पुण पडुच्च पंचण्हमूहसण्णा हेउसण्णा बेइंदियाईणं । ते वि असण्णी, विण्णाणअविसित्तणतो, दिट्ठिवातोबदेसं सुर-नारय-गब्भुन्भवजीवाणं कालिगी सण्णा ॥ पुण पडुच्च कालिकोपदेसा वि असण्णी अविसिट्रत्तणतो छउमत्थाणं सण्णा सम्म हिट्ठीण होइ सुयनाणं ।। चेव, अतो णज्जति दिट्रिवातसण्णी सव्वत्तमो। मइवावारविमुक्का सण्णाईआ उ केवलिणो॥ (नन्दीच पृ ४८) (विभा ५२३, ५२४) __ जिनमें विशिष्ट संज्ञाएं-दीर्घकालोपदेशिकी, हेतुपृथ्वी, अप, तेजस्, वायु और वनस्पति-इन पांचों उपदेशिकी और दृष्टिवादोपदेशिकी होती हैं, वे ही वास्तव ओघ संज्ञा होती है। द्वीन्द्रिय आदि में हेतु (हेतूपदेश) में संज्ञी कहलाते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में अल्प ज्ञानात्मक संज्ञा तथा देव, नारक और गर्भज प्राणियों में दीर्घ केवल ओघसंज्ञा होती है। वे असंज्ञी ही हैं। द्वीन्द्रिय से कालिकी संज्ञा होती है । सम्यकदृष्टि छद्मस्थ के दृष्टिवाद संमृच्छिम पंचेन्द्रिय तक के जीव हेतुवादसंज्ञी हैं, परंतु संज्ञा होती है। अतः उसके श्रुतज्ञान को संज्ञिश्रुत कहा कालिकोपदेश संज्ञा की अपेक्षा वे भी असंज्ञी हैं क्योंकि गया है। मति-श्रुत के व्यापार से विमुक्त होने से केवली उनका विज्ञान विशिष्ट नहीं है । इसी प्रकार दृष्टिवादोसंज्ञातीत होते हैं। पदेशसंज्ञा की अपेक्षा से कालिकोपदेश संज्ञा वाले असंज्ञी ४. एकेन्द्रिय असंज्ञी क्यों ? हैं । इसलिए दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा सर्वोत्तम है। ..."एगिदियाइयाण वि जं सण्णा दसविहा भणिया ।। ५. एकेन्द्रिय में श्रुत और आहार आदि संज्ञाएं (विभा ५०५) बकुलादीनां स्पर्शनेन्द्रियातिरिक्तद्रव्येन्द्रियलब्धिविकलयदि स्वल्पसंज्ञायोगाद् विकलेन्द्रियादयः संज्ञिन इष्यन्ते, . त्वेऽपि तेषां किमपि सूक्ष्म भावेन्द्रियपञ्चकविज्ञानमभ्युपपृथिव्यादयः किं नेष्यन्ते ? यतस्तेषामपि दशविधाः संज्ञा गम्यते "तथा भाषाश्रोत्रेन्द्रियलब्धिविकलत्वेऽपि तेषां विद्यन्त एव"""""इहोघसंज्ञा स्तोकत्वाद् आहारादिसंज्ञा किमपि सूक्ष्म श्रुतं भविष्यति, अन्यथाऽऽहारादिसंज्ञाऽनुश्चानिष्टत्वान्नाधिक्रियन्ते । यथा न कार्षापणमात्रेण पपत्तेः । धनवानभिधीयते मूर्तिमात्रेण वा रूपवानिति, किन्तु यथा अभिलाषश्च ममैवरूपं वस्तु पूष्टिकारि तद्यदीदप्रभूतरत्नादिसमन्वितो धनवान् प्रशस्तमूर्तियुक्तश्च रूप मवाप्यते ततः समीचीनं भवतीत्येवं शब्दार्थोल्लेखानविद्धः वानभिधीयते एवं महती शोभना च संज्ञा यस्यास्त्यसो स्वपुष्टिनिमित्तभूतप्रतिनियतवस्तुप्राप्त्यध्यवसायः, स च संजीति, विशिष्टतरा च विकलेन्द्रियसंज्ञा। श्रतमेव, तस्य शब्दार्थपर्यालोचनात्मकत्वात्,''शब्दानाम (नन्दीहाव प्रश्न होता कि विकलेन्द्रिय जीवों में स्वल्पतम संज्ञा तर्जल्पाकाररूपाणामपि विवक्षितार्थवाचकतया प्रवर्तहोती है, फिर भी वे संज्ञी कहलाते हैं तो फिर एकेन्द्रिय मानत्वात्, श्रुतस्य चैवलक्षणत्वात्। (नन्दीमत् प १४१) जीवों में तो दस संज्ञाएं होती हैं, वे संज्ञी क्यों नहीं बकुल आदि वनस्पतियों तथा अन्य एकेन्द्रिय जीवों मिता पाणियों में में स्पर्शन इन्द्रिय के अतिरिक्त अन्य द्रव्य इन्द्रियां नहीं ओघसंज्ञा अल्पतम होती है तथा आहार आदि संज्ञाएं होतीं, किन्तु उनमें पांचों भाव इन्द्रियों का किंचित सक्ष अनिष्ट होने के कारण उनकी गणना नहीं होती, इसलिए विज्ञान रहता है । यद्यपि उनकी कोई भाषा नहीं होती, वे जीव असंज्ञी कहलाते हैं। कार्षापण एक सिक्का है। श्रोत्रेन्द्रिय भी नहीं होती, फिर भी उनमें सूक्ष्म श्रत होता वह भी धन है । पर उससे व्यक्ति जैसे धनवान के रूप में है, अन्यथा उनमें आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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