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________________ लेश्या ५५६ लेश्या और योग है कि योगपरिणाम लेथ्या है। अतीव चक्षुराक्षेपिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया । यथैव कायादिकरणयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिर्योग (उशावृ प ६५०) उच्यते तथैव लेश्याऽपीति। गुरवस्तु व्याचक्षते-कर्म- जो दूसरों की आंखों को अपनी ओर आकृष्ट करती निस्यन्दो लेश्या, यतः कर्मस्थितिहेतवो लेश्या:। है, उस आणविक आभा, कांति, प्रभा या छाया का नाम ता: कृष्णनीलकापोततेजसीपद्मशुक्लनामान: । है लेश्या । ये जीव को प्रभावित करने वाले एक प्रकार श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधात्यः । के पुद्गल हैं। (उशाव १६५०) शरीरलेश्यास् हि अशुद्धास्वपि आत्मलेश्या शुद्धा जैसे काय आदि करणों से युक्त आत्मा की वीर्य भवंति । शुद्धा अपि शरीरलेश्या भजनीया। परिणति योग है, वैसे ही करणों से युक्त आत्मा की वीर्य (उचू पृ २१२) परिणति लेश्या है । लेश्या कर्म-निस्यन्द है, क्योंकि यह शरीरवर्णलेश्या के अशुद्ध होने पर भावलेश्या शुद्ध कर्म के स्थितिबंध का हेतु है। हो सकती है। शुद्ध भाव लेश्या में शरीर की लेश्या शुद्ध वर्णबन्ध के श्लेष की तरह ये छह लेश्याएं कर्मबंध भी हो सकती है और अशुद्ध भी। की स्थिति का हेतु बनती हैं। अजीव द्रव्यलेश्या कर्मद्रव्य लेश्या - चंदाण य सूराण य गहगणनक्खत्तताराणं ।। जा दव्वकम्मलेसा सा नियमा छन्विहा उ नायव्वा । आभरणच्छायणादंसगाण मणिकागिणीण जा लेसा। किण्हा नीला काऊ तेऊ पम्हा य सुक्का य॥ अजीवदव्वलेसा नायव्वा दसविहा एसा ॥ शरीरनामकर्मद्रव्याण्येव कर्मद्रव्यलेश्या । (उनि ५३७,५३८) (उनि ५६९ शावृ प ६५०) अजीव द्रव्यलेश्या के दस प्रकार हैंद्रव्यकर्मलेश्या के नियमत: छह प्रकार हैं-कृष्ण, १. चन्द्र ६. आभरण नील, कापोत, तेजस्, पद्म और शुक्ल। यहां शरीरनाम २. सूर्य ७. छादन (सुवर्णखचित वस्त्र) कर्म के द्रव्यों को ही कर्मद्रव्यलेश्या कहा गया है। २. ग्रह ८. आदर्श नोकर्म जीवद्रव्यलेश्या : आभामंडल ४. नक्षत्र ९. मणि जीवानां भवति सप्तविधा इहापि लेश्येति प्रक्रमः, ५. तारा १०. काकिणी। अत्र च जयसिंहसूरिः-कृष्णादयः षट्, सप्तमी संयोगजा। २. लेश्या और योग इयं च शरीरच्छायात्मका परिगह्यते । अन्ये त्वौदारिको योगपरिणामत्वे तु लेश्यानां "योगा पयडिपएसं ठिइदारिकमिश्रमित्यादिभेदतः सप्तविधत्वेन जीवशरीरस्य तच्छायामेव कृष्णादिवर्णरूपां नोकर्मणि सप्तविधां जीव अणभागं कसायओ कुणति" ति वचनात्प्रकृतिप्रदेशबन्धद्रव्य लेश्यां मन्यन्ते । (उशाव प ६५०) हेतुत्वमेव स्यात् न तु कर्म स्थितिहेतुत्वम् । कर्मनिस्यन्द रूपत्वे तु यावत्कषायोदयस्तावत्तन्निस्यन्दस्यापि सद्___ जीव के सात प्रकार की लेश्या होती है। जयसिंह भावात्कर्मस्थितिहेतुत्वमपि युज्यत एव। (उशाव प ६५०) सूरि का अभिमत है— कृष्ण आदि छह लेश्याएं हैं। सातवीं लेश्या है संयोगजा। यह शरीर की छाया- याग-पारणाम लेश्या है। योग से प्रकृति और प्रदेश आभामंडल रूप है। कुछ आचार्यों का अभिमत है-- * का अभिमत है - का वन्ध होता है। कषाय से स्थिति और अनुभाग का नोकर्म जीवद्रव्यलेश्या के सात प्रकार हैं-औदारिक, बन्ध होता है । इस वचन के आधार पर लेश्या प्रकृति औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र, आहारक, आहारक- और प्रदेश बन्ध का हेतु है, कर्मस्थिति का हेत नहीं मिश्र और कार्मण । कष्ण, नील आदि वर्णों वाली इन है। कर्मनिस्यन्द का नाम लेश्या है। जब तक कषाय का सातों शरीरों की पोद्गलिक आभा का नाम है-द्रव्य उदय रहता है, तब तक कर्मनिस्यन्द का सद्भाव रहता लेश्या। है-इस दृष्टि से लेश्या को कर्म की स्थिति का हेत भी लेभयति- श्लेषयतीवात्मनि जननयनानीति लेश्या- माना जा सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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