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________________ योग ५३८ जिससे आत्मा कर्म से सम्बद्ध होती है, वह योग है । उसके तीन प्रकार हैं- मनोयोग, वचनयोग, काययोग । मनोयोग .....तणुवावाराहिअमणदव्वसमूहजीववावारो । सोमण जोगो भण्णइ मण्णइ नेयं जओ तेणं ॥ काययोग से गृहीत मनोद्रव्य के व्यापार होता है, वह मनोयोग है। चिंतन-मनन किया जाता है । औदारिकर्वक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसाचिव्याज्जीवव्यापारो मनोयोगः । ( नन्दीमवृप ११२ ) ( विभा ३६४ ) द्वारा जीव का जो मनोयोग से ज्ञेय का औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर की प्रवृत्ति से गृहीत मनोवर्गणा के पुद्गलों के सहयोग से होने वाला जीव का चिन्तनात्मक प्रयत्न मनोयोग है । वचनयोग ....तणुजोगा हिअवइदव्वसमूहजीववावारो । सो व जोगो भण्णइ वाया निसिरिज्जए तेणं ॥ ( विभा ३६३ ) द्वारा जीव का जो वचनयोग से शब्द - काययोग से गृहीत शब्दद्रव्य के व्यापार होता है, वह वचनयोग है । द्रव्यों का निसर्जन होता है । औदारिकवैक्रियाहारकव्यापाराहृतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो वाग्योगः । ( नन्दीमवृप ११२) औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर की प्रवृत्ति से गृहीत भाषावर्गणा के पुद्गलों के सहयोग से होने वाला जीव का भाषात्मक प्रयत्न वचनयोग है । काययोग औदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः ( नन्दीमवु प ११२ ) काययोगः । औदारिक आदि शरीर के द्वारा होने वाली आत्मा की वीर्यपरिणति काययोग है । काययोग के तीन रूप ....तणुसंरंभेण जेण मुंबइ स वाइओ जोगो । Hors यस माणसिओ तणुजोगो चेव स विभत्तो ॥ ( विभा ३५९ ) Jain Education International भावयोग मिश्र नहीं जिस कायव्यापार से जीव शब्द द्रव्यों को छोड़ता है, वह वचनयोग है । जिस काय की प्रवृत्ति से जीव मनोद्रव्यों को मनन में व्यापृत करता है, वह मनोयोग है । एक काययोग ही उपाधिभेद से तीन रूपों में विभक्त है । २. द्रव्ययोग- भावयोग मनो-वाक् काययोगप्रवर्तकानि द्रव्याणि मनो-वाक्कायपरिस्पन्दात्मको योगश्च द्रव्ययोगः । यस्त्वेतदुभयरूपयोगहेतुरध्यवसायः स भावयोगः । (विभामवृ १ पृ ६८५ ) द्रव्ययोग - १. मन, वचन और काय के प्रवर्तक द्रव्य । २. मन, वाक् और शरीर का परिस्पन्दन । भावयोग-द्रव्ययोग के सहयोग से होने वाला अध्यवसाय | ३. भावयोग मिश्र नहीं कम्मं जोगनिमित्तं सुभोऽसुभो वा स एगसमयम्मि । होज्ज न उ उभयरूवो कम्मंपि तओ तयणुरूवं ॥ न मण-इ-काओगा सुभासुभा वि समयम्मि दी संति । दव्वम्मि मीसभावो भवेज्ज न उ भावकरणम्मि || भाणं सुभम सुभं वा न उ मीसं जं च भाणविरमे वि । लेसा सुभासुभा वा सुभमसुभं वा तओ कम्मं ॥ ( विभा १९३५ - १९३७) वह योग एक समय में या नहीं होता । कर्मबंध का हेतु है योग । तो शुभ होता है या अशुभ, मिश्र कुछ कहते हैं-' अविधि से दान आदि का उपदेश देने, अविधि से पूजा, वन्दना आदि प्रवृत्ति करने से शुभ और अशुभ - मिश्र योग होता है' पर यह कथन अयुक्त है। व्यवहार नय की अपेक्षा द्रव्ययोग मिश्र हो भी सकता है किन्तु निश्चय नय के अभिमत में द्रव्ययोग और भावयोग — दोनों ही मिश्र नहीं हो सकते । अध्यवसाय के दो प्रकार हैं शुभ और अशुभ । अध्यवसाय का तीसरा प्रकार शुभाशुभ या मिश्र अध्यवसाय आगमों में कहीं भी प्रतिपादित नहीं है । कारण के अनुरूप कार्य होता है इसलिए शुभ अध्यवसाय या भावयोग से पुण्य और अशुभ से पाप का बंध होता है । पुण्य और पाप का मिश्रण नहीं होता, मिश्र बंध नहीं होता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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