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________________ मोक्ष योग "तया चयइ संजोगं, सब्भितरबाहिरं ।। जीवकर्मणोरनादिसंयोगस्य धातूकनकादिसंयोग""तया मुंडे भवित्ताणं, पव्वइए अणगारियं ॥ दृष्टांतद्वारेणाभिधानं तद्वदेवानादित्वेऽप्युपायतो जीवकर्म.''तया संवरमुक्किळं, धम्म फासे अणुत्तरं । संयोगस्याभावख्यापनार्थम्, अन्यथा मुक्त्यनुष्ठान'"तया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसं कडं ॥ वैफल्यापत्तेः । (उनि ३४ शावृ प २५) .."तया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छई ।। जैसे स्वर्ण और मिट्टी का अनादिकालीन संयोग .."तया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली ।। संतानगत होने पर भी अग्नि आदि उपायों से विच्छिन्न ..."तया जोगे निलंभित्ता, सेलेसि पडिवज्जई ॥ होता है, वैसे ही जीव और कर्म का प्रवाहरूप से अनादि .."तया कम्म खवित्ताणं, सिद्धि गच्छइ नीरओ।। संबंध तप, संयम आदि उपायों से विच्छिन्न होता है। ..."तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ। अन्यथा मुक्ति के लिए किये जाने वाले अनुष्ठानों की (द४।१३-२५) सार्थकता नहीं हो सकती। साध्य-सिद्धि का क्रम मोहनीय–श्रद्धा और चारित्र को विकृत करने ० जो जीवों को भी जानता है, अजीवों को भी जानता वाला कर्म । (द्र. कर्म) है, वह जीव और अजीव दोनों को जानने वाला ही यथाख्यात चारित्र-वीतराग का चारित्र । संयम को जानता है।। (द्र. चारित्र) • जब मनुष्य जीव और अजीव -इन दोनों को जान लेता है तब वह सब जीवों की बहविध गतियों को मान यथाप्रवृत्तिकरण -वह परिणामविशेष जिससे जीव भी जान लेता है। दुर्भेद्य रागद्वेषात्मक ग्रंथि के ० वह पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष को भी जान लेता है। समीप पहुंचता है । (द्र. करण) • वह देव और मनुष्य के भोगों से विरक्त हो योग-मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति । जाता है। । १. योग की परिभाषा और प्रकार • वह आभ्यन्तर और बाह्य संयोगों को त्याग देता है। * मनोयोग ० वह मुंड होकर अनगार-वृत्ति को स्वीकार करता है। * केवली के मनोयोग (द. गुणस्थान) ० वह उत्कृष्ट संवरात्मक अनुत्तर धर्म का स्पर्श ० वचनयोग करता है। * केवली का बोलना वचनयोग (द्र. केवली) ० वह अबोधि रूप पाप द्वारा संचित कर्म-रज को ० काययोग प्रकम्पित कर देता है। २. द्रव्ययोग-भावयोग ० वह सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त । ३. भावयोग मिश्र नहीं कर लेता है। ४. भावसत्य ० वह जिन और केवली होकर लोक-अलोक को जान | ५. करणसत्य लेता है। ६. योगसत्य • वह योगों का निरोध कर शैलेशी अवस्था को प्राप्त ७. योगपरित्याग के परिणाम * योगनिरोध की प्रक्रिया होता है। (द्र. केवली) . वह कर्मों का क्षय कर रज-मुक्त बन सिद्धि को * योग और लेश्या (द्र. लेश्या) * योग से कर्मबंध (द्र. कर्म) प्राप्त करता है। • वह लोक के अग्र भाग में शाश्वत सिद्ध होता है। १. योग की परिभाषा और प्रकार ४. अनादि संबंध का अन्त कैसे ? जं तेण जुज्जए वा स कम्मुणा जं च जुज्जए तम्मि । जह धाऊ कणगाई सभावसंजोगसंज्या हंति । तो जोगो सो य मओ तिविहो कायाइवावारो ।। इअ संतइकम्मेणं अणाइसंजुत्तओ जीवो । (विभा ३४९९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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