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________________ गोचराग्र का अथ ४९९ भिक्षाचर्या सवक्कसुद्धि समुपेहिया मुणी, २. गोचरान का अर्थ गिरं च दुळं परिवज्जए सया। गोचरो नाम भ्रमणं."जहा गावीओ सहादिसु विसमियं अदु→ अणुवीइ भासए, एसु असज्जमाणीओ आहारमाहारेंति,""एवं साधुणावि सयाण मज्झे लहई पसंसणं ॥ विसएसु असज्जमाणेण समुदाणे उग्गमउप्पायणासुद्धे (द ७५५) निवेसियबुद्धिणा अरत्तदुह्रण भिक्खा हिंडियव्वत्ति ।" मुनि वाक्यशुद्धि को भलीभांति समझकर दोषयुक्त अग्गं नाम पहाणं भण्णइ, सो य गोयरो साहूणमेव पहाणो वाणी का प्रयोग न करे। मित और दोषरहित वाणी भवति, न उ चरगाईणं आहाकम्मुद्देसियाइ जगाणंति । सोच-विचारकर बोलने वाला साधु सत्पुरुषों में प्रशंसा ___ गोरिव चरणं गोचरः- उत्तमाधममध्यमकुलेष्वरक्तको प्राप्त होता है। द्विष्टस्य भिक्षाटनम् । पुचि बुद्धीए पासित्ता ततो वक्कमुदाहरे । (दजिचू पृ १६७,१६८, हावृ प १६३) अचक्खुओ व णेतारं बुद्धिमण्णे उ ते गिरा।। गोचर शब्द का अर्थ है भ्रमण अथवा गाय की तरह (दनि १९४) चरना--भिक्षाटन करना। जिस प्रकार गाय शब्द पहले बुद्धि से विमर्श कर बोलना चाहिए। वाणी आदि विषयों में गद्ध नहीं होती हुई आहार ग्रहण बुद्धि का वैसे ही अनुगमन करे जैसे अन्धा आदमी अपने करती है उसी प्रकार साधु भी आसक्त न होते हुए नेता का अनुगमन करता है । सामुदायिक रूप से उद्गम, उत्पाद और एषणा के .."अणुवीइ सव्वं सव्वत्थ, एवं भासेज्ज पन्नवं ।। दोषों से रहित भिक्षा के लिए भ्रमण करते हैं। मुनि (द ७१४४) सदोष आहार को वर्ज निर्दोष आहार लेते हैं, इसलिए सब प्रसंगों में पूर्वोक्त सब वचन-विधियों का अनु उनकी भिक्षाचर्या साधारण गोचर्या से विशिष्ट होती है चिन्तन कर प्रज्ञावान् मुनि इस प्रकार बोले कि कर्मबन्ध अत: गोचर के बाद 'अग्र' शब्द का प्रयोग किया गया है। न हो। भिक्षाचर्या विविध अभिग्रहों के द्वारा वृत्ति पेडा व अद्धपेडा, गोमुत्तिय पयंगवीहिया चेव । (चर्या) को संक्षिप्त करना। संबुकावट्टायय-गंतुंपच्चागया छट्ठा ॥ १. भिक्षाचर्या के अंग (उ ३०।१९) २. गोचरान का अर्थ १. पेटा २. अर्धपेटा ३. गोमूत्रिका ४. पतंग-वीथिका ० प्रकार ५. शम्बूकावर्ता (१. आभ्यन्तर शम्बूकावर्ता और २. * गोचरान : क्षेत्र ऊनोदरी (5. ऊनोदरी) | बाह्य शम्बूकावर्ता) ६. आयतं गत्वा-प्रत्यागता । * एषणा का अर्थ (द. एषणा) | शम्बूकावर्ता के उक्त दोनों प्रकारों को मानने पर तथा ३. सात प्रकार की एषणा आयत को गत्वा-प्रत्यागता से पृथक् मानने पर गोचराग्र ४. अभिग्रह के प्रकार के आठ प्रकार बनते हैं। * भिक्षाचर्या : तप का एक भेद (द्र. तप) पेडा पेडिका इव चउकोणा। अद्धपेडा इमीए चेव अद्धसंठिया घरपरिवाडी। गोमुत्तिया वंकावलिया। १. भिक्षाचर्या के अंग पयंगवीही अणियया पयंगुड्डाणसरिसा । शम्बूक:अट्टविहगोयरग्गं तु, तहा सत्तेव एषणा । शङ्खस्तस्यावर्त्तः शम्बूकावतस्तद्वदावर्तो यस्यां सा अभिग्गहा य जे अन्ने, भिक्खायरियमाहिया ।। शम्बूकावर्ता। सा च द्विविधा- यतः सम्प्रदाय: (उ ३०।२५) "अभितरसंबुक्का बाहिरसंबुक्का य, तत्थ अभिंतरआठ प्रकार के गोचराग्र तथा सात प्रकार की एषणा संबुक्काए संखनाभिखेत्तोवमाए आगिइए अंतो आढवति और जो अन्य अभिग्रह हैं. उन्हें भिक्षाचर्या कहा जाता बाहिरओ संणियटइ, इयरीए विवज्जओ।" आयतं दीर्घ प्राञ्जलमित्यर्थः। तथा च सम्प्रदायः- "तत्थ उज्जुयं गंतूण नियट्टइ।" (उशावृ प ६०५) प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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