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________________ प्रतिसंलीनता ४४४ विविक्त-शयनासन के परिणाम उदीर्ण विफलीकरणं च । योगसंलीनता च मनोयोगा- ४. उदय में आने वाले लोभ का निरोध करना तथा दीनामकुशलानां निरोधः कुशलानामुदीरणम् । उदय प्राप्त लोभ को विफल करना । (उशावृ प ६०८) ४. योगसंलीनता प्रतिसंलीनता के चार प्रकार हैं जोगसंलीणया तिविहा, तं जहा-अकुसलमणनिरोहो १. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता-श्रोत्र आदि इन्द्रियों का कुसलमणउदीरणं वा, एवं वायाए, कायसंलीणया शब्द आदि अपने-अपने मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों चंकमणादीणि ण अकज्जे, कज्जे जयणाए। (दअच ११४) में रागद्वेष का अभाव । योगसंलीनता के तीन प्रकार हैं२. कषाय प्रतिसंलीनता-क्रोध आदि के उदय का मनसंलीनता-अकुशल मन का निरोध, कुशल मन निरोध और उदीर्ण का विफलीकरण । का प्रवर्तन । ३. योगप्रतिसंलीनता---अकुशल मन-वचन-काया वचनसंलीनता-अकुशल वचन का निरोध, कुशल का निरोध, कुशल योगों में प्रवृत्ति । - वचन का प्रवर्तन । ४. विविक्तचर्या (विवक्त-शयनासन)-एकांत शयन कायसंलीनता---बिना प्रयोजन चंक्रमण आदि न और आसन का सेवन । करना, प्रयोजन होने पर यतनापूर्वक २. इन्द्रिय प्रतिसंलीनता चंक्रमण आदि करना। इंदियसंलीणया पंचविहा भण्णइ, तं जहा- ५. विविक्त-शयनासन सोइंदियसंलीणया, चक्खिदियसंलीणया, घाणिदिय एगतमणावाए, इत्थीपसुविवज्जिए। संलीणया, जिभिदियसंलीणया, फासिदियसंलीणया । सयणासणसेवणया, विवित्तसयणासणं ॥ . (दजिचू पृ २४) (उ ३०।२८) इन्द्रियसंलीनता के पांच प्रकार हैं एकान्त, अनापात और स्त्री-पशू आदि से रहित १. श्रोत्रेन्द्रियसंलीनता शयन और आसन का सेवन करना विविक्त-शयनासन २. चक्षुरिन्द्रियसंलीनता ३. घ्राणेन्द्रियसंलीनता (उत्तराध्ययन में यह गाथा बाह्य तप के छठे भेद ४. जिहन्द्रियसंलीनता 'प्रतिसंलीनता' की व्याख्या में दी गई है। परंतु यह ५. स्पर्शनेन्द्रियसंलीनता प्रतिसंलीनता के एक अवान्तर भेद-विविक्त-शयनासन की द्योतक मात्र है। वृत्तिकार शान्त्याचार्य ने इसका ३. कषायसंलीनता विमर्श इस प्रकार किया है-विविक्तचर्या नाम संलीनकसायसंलीणया चतुम्विहा, तं जहा-कोहोदय तोक्ता भवति... प्राधान्याच्चास्या एव साक्षादभिधानं, निरोहो वा उदयप्पत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं, एवं प्राधान्यं चेन्द्रियादिसलीनतोपकारित्वादस्या: ।) सेसेसु वि। (दअचू पृ १४) (उशा प ६०८) कषायसंलीनता के चार प्रकार हैं ६. विविक्त-शयनासन के परिणाम १. उदय में आने वाले क्रोध का निरोध करना तथा विवित्तसयणासणयाए णं चरित्तगुत्ति जणयइ । उदय प्राप्त क्रोध को विफल करना । चरित्तगुते य णं जीवे विवित्ताहारे दढचरित्ते एगंतरए २. उदय में आने वाले मान का निरोध करना तथा मोक्खभावपडिवन्ने अटविहकम्मगंठिं निज्जरेइ । उदय प्राप्त मान को विफल करना । (उ २९।३२) ३. उदय में आने वाली माया का निरोध करना विविक्तशयनासन के सेवन से जीव चारित्र की रक्षा तथा उदय प्राप्त माया को विफल करना। को प्राप्त होता है। चारित्र की सुरक्षा करने वाला जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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