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________________ ४४३ केवली छद्मस्थ की द्रव्य भाव.... ३. लोल - प्रतिलेख्यमान वस्त्र का हाथ या भूमि से संघर्षण करना । ४. एकामर्शा - वस्त्र को बीच में से पकड़कर उसके दोनों पावों का एक बार में ही स्पर्श करना - एक दृष्टि में ही समूचे वस्त्र को देख लेना । ५. अनेक रूप धुनना - प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को अनेक बार ( तीन बार से अधिक ) झटकना अथवा अनेक वस्त्रों को एक साथ झटकना ६. प्रमाण- प्रमाद - प्रस्फोटन और प्रमार्जन का जो प्रमाण (नौ-नौ बार करना) बतलाया है, उसमें प्रमाद करना । ७. गणनोपगणना - प्रस्फोटन और प्रमार्जन के निर्दिष्ट प्रमाण में शंका होने पर उसकी गिनती करना । ८. प्रतिलेखना- प्रभाव से छह काय की विराधना पडिलेहणं कुणतो मिहोकहं कुणइ जणवयकहं वा । देइ व पच्चक्खाणं वाएइ सयं पडिच्छइ वा ॥ पुढवी आउक्काए तेऊवाऊवणस्स इतसाणं । पडिलेहणापमत्तो छहं पि विराहओ होइ ॥ ( उ २६ २९, ३०) जो प्रतिलेखना करते समय कामकथा करता अथवा जनपद की कथा करता है अथवा प्रत्याख्यान करवाता है, दूसरों को पढ़ाता है अथवा स्वयं पढ़ता है, वह प्रतिलेखना में प्रमत्त मुनि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय इन छहों कायों का विराधक होता है । ६. केवली - छमस्थ की द्रव्य भाव प्रतिलेखना दुविहा खलु पडिलेहा छउमत्थाणं च केवलीणं च । forर बाहिरिआ दुविहा दव्वे य भावे य ॥ (ओनि २५६ ) छद्मस्थ और केवली के दो-दो प्रकार की प्रतिलेखना होती है— द्रव्य और भाव । द्रव्य प्रतिलेखना बाह्य है और भाव प्रतिलेखना आभ्यन्तर है । पाणेहि उ संसत्ता पडिलेहा होइ केवलीणं तु । संसत्तम संसत्ता पडिलेहा ॥ छउमत्थाणं तु Jain Education International (ओनि २५७ ) प्रतिसंलीनता केवल के बाह्य प्रतिलेखना प्राणियों से संसक्त वस्तुविषयक होती है । छद्मस्थ के बाह्य प्रतिलेखना प्राणियों से संसक्त या असंसक्त वस्तुविषयक होती है । नाऊण वेणिज्जं अइबहुअं आउअं च थोवागं । कम्मं पडिलेहेडं वच्चंति जिणा समुग्धायं ॥ ( ओनि २५९ ) केवली आयुष्य कर्म को थोड़ा और वेदनीय आदि कर्मों को अधिक जानकर समुद्घात करते हैं । यह केवली भाव प्रतिलेखना है । किं कथं किंवा सेसं किं करणिज्जं तवं च न करेमि । पुव्वावत्तकाले जागरओ भावपडिलेहा ॥ (ओनि २६२ ) पूर्वरात्र और अपररात्र में मुनि यह चिंतन करे कि मैंने आज क्या किया ? क्या करना मेरे लिए शेष है ? जो तप आदि मैं कर सकता हूं, क्या मैं उसे नहीं कर रहा हूं - यह छद्मस्थ की भाव प्रतिलेखना है । प्रतिसंलीनता - इन्द्रिय आदि का बाह्य विषयों से प्रतिसंहरण करना — उनकी बहिवृत्तिको अन्तर्मुखी बनाना । बाह्य तप का छठा प्रकार । १. प्रतिसंलीनता के प्रकार २. इंद्रिय प्रतिसंलीनता ३. कषाय प्रतिसंलीनता ४. योग प्रतिसंलीनता ५. विविक्त- शयनासन ६. विविक्त शयनासन के परिणाम ( द्र. तप ) १. प्रतिसंलीनता के प्रकार संलीणता चउव्विहा, तं जहा इंदियसंलीणया कसाय संलीणया जोगसंलीणया विवित्तचरिया । ( अचू पृ १४ ) इन्द्रियसंलीनता श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैः शब्दादिषु सुन्दरेतरेषु रागद्वेषाकरणं, कषायसंलीनता तदुदयनिरोध For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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