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________________ आत प्रतिमा ४३८ बारह भिक्षु-प्रतिमाएं बांधता, दिवा ब्रह्मचारी और रात्रि में अब्रह्मचर्य २. भिक्षु-प्रतिमा की अर्हता का परिमाण करता है । इसका जघन्य कालमान एक पडिवज्जइ संपुण्णो संघयणधिइजुओ महासत्तो । दिन और उत्कृष्ट कालमान पांच मास का है। पडिमाउ जिणमयंमी संमं गुरुणा अणु ग्णाओ॥ ६. दिन और रात में ब्रह्मचारी-इसमें पूर्वोक्त उप गच्छे च्चिय निम्माओ जा पुव्वा दस भवे असंपुण्णा । लब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक दिन नवमस्स तइयवत्थु होइ जहण्णो सुयाभिगमो॥ और रात में ब्रह्मचारी रहता है, किन्तु सचित्त का (आवहाव २ पृ १०५) परित्याग नहीं करता। इसका उत्कृष्ट कालमान छह मास का है। भिक्षु-प्रतिमा की साधना करने वाला भिक्ष विशिष्ट ७. सचित्तपरित्यागी-इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के । संहननसम्पन्न, धृतिसम्पन्न और शक्तिसम्पन्न होता है। अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक सम्पूर्ण सचित्त का उस भावितात्मा भिक्षु की न्यूनतम श्रुतसम्पदा नौवें पूर्व परित्याग करता है। इसका उत्कृष्ट कालमान की तीसरी वस्तु तथा उत्कृष्ट श्रुतसम्पदा कुछ न्यून दस सात मास का है। पूर्व होनी चाहिये । वह गुरु से अनुज्ञा प्राप्त कर प्रतिमाओं ८. आरम्भपरित्यागी- इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के को स्वीकार करता है। अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक आरम्भ-हिंसा का ३. बारह भिक्षु-प्रतिमाएं परित्याग करता है। इसका उत्कृष्ट कालमान आठ मास का है। मासाई सत्तता पढमाबितिसत्त राइदिणा । ९. प्रेष्य-परित्यागी-इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अहराई एगराई भिक्खुपडिमाण बारसगं ।। अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक प्रेष्य आदि से हिंसा (आवहाव २ पृ १०५) करवाने का परित्याग करता है। इसका उत्कृष्ट भिक्षु-प्रतिमा के बारह प्रकारकालमन नौ मास का है। १. एकमासिकी ७. सप्त मासिकी १०. उद्दिष्टभक्त-परित्यागी-इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों २. द्विमासिकी ८. सप्त अहोरात्रिकी के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक उद्दिष्ट भोजन ३. त्रिमासिकी ९. सप्त अहोरात्रिकी का परित्याग करता है। वह शिर को क्षुर से मुंडवा ४. चतुर्मासिकी १०. सप्त अहोरात्रिकी लेता है या चोटी रख लेता है। घर के किसी विषय ५. पंचमासिकी ११. एक अहोरात्रिकी में पूछे जाने पर जानता हो तो कहता है-मैं जानता ६. षण्मासिकी १२. एकरात्रिकी हूं और न जानता हो तो कहता है-मैं नहीं जानता वोसःचत्तदेहो उवसग्गसहो जहेव जिणकप्पी । हूं। इसका उत्कृष्ट कालमान दस मास का है। ११. श्रमणभूत-इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त एसण अभिग्गहीया भत्तं च अलेवयं तस्स ।। प्रतिमाधारी उपासक शिर को क्षुर से मुंडवा लेता है गच्छा विणिक्खमित्ता पडिवज्जे मासियं महापडिमं । या लुंचन करता है। वह साधु का वेश धारण कर दत्तेगभोयणस्सा पाणस्सवि एग जा मासं ॥ साधु-धर्मों का पालन करता है। वह भिक्षा के लिए पच्छा गच्छमईए एव दुमासि तिमासि जा सत्त । गृहस्थ के घर में प्रवेश कर 'प्रतिमासम्पन्न श्रमणो नवरं दत्तीवुड्ढी जा सत्त उ सत्तमासीए॥ पासक को भिक्षा दो'ऐसा कहता है। इसका तत्तो य अट्रमीया हवइ ह पढमसत्तराइंदी । उत्कृष्ट कालमान ग्यारह मास का है।। तीय चउत्थचउत्थेणऽपाणएणं अह विसेसो॥ (बारहवती श्रावक के मन में जब साधना की तीव्र उत्ताणगपासल्लीणिसज्जीयावि ठाण ठाइत्ता । भावना उत्पन्न होती है, तब वह इन प्रतिमाओं को सहउवसग्गे घोरे दिव्वाई तत्थ अविकंपो॥ स्वीकार करता है। इनके प्रतिपूर्ण पालन में साढ़े पांच दोच्चावि एरिसच्चिय बहिया गामाइयाण णवरं तु । वर्ष लगते हैं। आनन्द श्रमणोपासक ने इन प्रतिमाओं को उक्कुडलगंडसाई डंडाइतिउव्व ठाइत्ता ।। स्वीकार किया था। देखें--समवाओ १११ का टिप्पण तच्चाए वि एवं णवरं ठाणं तु तस्स गोदोही । तथा दशाश्रुतस्कन्ध की छठी दशा) वीरासणमहवावी ठाइज्ज व अंबखुज्जो वा।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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