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________________ प्रतिक्रमण ४३६ प्रतिक्रमण की उपसम्पदा ७. प्रतिषिद्ध का आचरण करने पर, जइ य पडिक्कमियव्वं, अवस्स काऊण पावयं कम्मं । ८. करणीय (स्वाध्याय आदि) नहीं करने पर, तं चेव न कायव्वं, तो होइ पए पडिक्कतो। ९. अर्हत द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों पर अश्रद्धा होने पर, (आवहाव १ पृ ३२३,३२४) १०. विपरीत प्ररूपणा करने पर । पापकारी प्रवत्ति हो जाने पर अवश्य प्रतिक्रमण ६. अतिचार के हेतु करना चाहिए और उस प्रवृत्ति का पुनः आचरण नहीं करना चाहिए, तभी प्रतिक्रमण की सार्थकता है। जो सहसा अण्णाणेण व भीएण व पिल्लिएण व परेण । व्यक्ति पाप करने पर कहता है-मिच्छा मि दुक्कडंवसणेणायंकेण व मूढेण व रागदोसेहिं ।। मेरा दुष्कृत मिथ्या हो और पुनः उसी पाप का आचरण जं किंचि कयमकज्ज नहु तं लब्भा पुणो समायरिउं । करता है तो वह प्रत्यक्ष झूठ बोलता है। यह मायातस्स पडिक्कमियव्वं न ह तं हियएण वोढव्वं ॥ निकृति का प्रसंग है। (ओनि ७९९,८००) सहसा अतकित. अज्ञान, भय. परप्रेरणा. विपत्ति १०. प्रातक्रमण क परिणाम रोग-आतंक , मूढता और रागद्वेष-इन हेतुओं से आच- पडिक्कमणणं वयछिद्दाई पिहेइ। पिहियवयछिद्दे रित दोषों का प्रतिक्रमण इस प्रकार से करना चाहिए कि पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरिते अट्ठसु पवयणमायासु पुन: उन दोषों का समाचरण न हो और न उनकी स्मृति उवउत्ते अपुहुत्ते सुप्पणिहिए विहरइ । (उ २९।१२) का भार ही रहे। प्रतिक्रमण से जीव व्रत के छेदों को ढक देता है। ७. असंभव अतिचारों का प्रतिक्रमण क्यों ? जिसने व्रत के छेदों को ढक दिया वैसा जीव आश्रवों को दिवसा असंभविणोवि देवसिए उच्चरिज्जति, राक दता है, चारित्र क धब्बा का मिटा दता है, आठ संवेगत्थं अप्पमादत्थं निंदणगरह्णत्थं एवमादि पडुच्च ।। प्रवचनमाताओं में सावधान हो जाता है तथा संयम में एवं रातिअसंभविणोवि विभावेज्जा। एकरस और सुसमाधिस्थ होकर विहार करता है । (आव २ पृ ७५) ११. प्रतिक्रमण की उपसम्पदा देवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में उन अतिचारों ...."तस्स धम्मस्स केवलिपण्णत्तस्स अब्भुट्ठिओमि का भी उच्चारण किया जाता है, जिनका आसेवन दिन आराहणाए विरओमि विराहणाए । रात में संभव भी नहीं है। ऐसा क्यों ? इसके मुख्य हेतु असंजमं परियाणामि संजमं उवसंपज्जामि । हैं -१. संवेगवृद्धि २. अप्रमाद की साधना ३.निंदा-गर्दा। अबंभं परियाणामि बंभं उवसंपज्जामि । ८. तीन काल का प्रतिक्रमण अकप्पं परियाणामि कप्पं उवसंपज्जामि । पडिक्कमणं..."तीए पच्चप्पन्ने अणागए चेव कालंमि ।। अण्णाणं परियाणामि नाणं उवसंपज्जामि । (आवनि १२३१) अकिरियं परियाणामि किरियं उवसंपज्जामि । प्रतिक्रमण तीनों काल से सम्बद्ध है मिच्छत्तं परियाणामि सम्मत्तं उवसंपज्जामि। १. अतीत का प्रतिक्रमण-निन्दा द्वारा अशुभ योग अबोहिं परियाणामि बोहिं उवसंपज्जामि । से निवृत्त होना। अमग्गं परियाणामि मग्गं उवसंपज्जामि । २. वर्तमान का प्रतिक्रमण-संवर द्वारा अशुभ योग (आव २।९) से निवृत्त होना। मैं केवलिप्रज्ञप्त धर्म की आराधना में उपस्थित ३. अनागत का प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान द्वारा अशुभ होता हं, विराधना से विरत होता हैं। योग से निवृत्त होना। ___ मैं असंयम से निवृत्त होता हूं, संयम में प्रवृत्त होता ६. प्रतिक्रमण की सार्थकता जं दुक्कडं ति मिच्छा, तं चेव णिसेवई पुणो पावं। मैं अब्रह्मचर्य से निवृत्त होता हूं, ब्रह्मचर्य में प्रवृत्त पच्चक्खमुसावाई, मायाणियडिप्पसंगो य॥ होता हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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