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________________ प्रतिक्रमण के स्थान ४३५ प्रतिक्रमण आप' और हरितकाय का अतिक्रमण किया हो, ओस, चींटियों प्रमार्जन न किया हो अथवा अविधि से किया हो। के बिलों, फफूंदी, कीचड़ और मकड़ी के जालों का अतिक्रम --दोष-सेवन के लिए मानसिक संकल्प संक्रमण करते समय जो इन जीवों की विराधना की किया हो, हो, सामने आते हुए एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरि- व्यतिक्रम-दोष-सेवन के लिए प्रस्थान किया हो, न्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को हत-प्रतिहत किया हो, अतिचार-दोष-सेवन के लिए तत्परता की हो, उनकी दिशा बदली हो, उन्हें चोट पहुंचाई हो, गम्भीर __सामग्री जुटा ली हो, रूप से घायल किया हो, हिलाया-डुलाया हो, सताया अनाचार-दोष का आसेवन किया हो, हो, क्लान्त किया हो, उत्पीड़ित किया हो, स्थानान्तरित इस विषय में जो मैंने दिवस सम्बन्धी अतिचार किया हो और उन्हें मार डाला हो तो उससे सम्बन्धित किया हो तो उससे संबंधित मेरा दुष्कृत निष्फल हो । मेरा दुष्कृत निष्फल हो । ५. प्रतिक्रमण के स्थान शय्या-अतिचार प्रतिक्रमण मिच्छत्तपडिक्कमणं तहेव अस्संजमे पडिक्कमणं । इच्छामि पडिक्कमिउं पगामसेज्जाए निगामसेज्जाए कसायाण पडिक्कमणं जोगाण य अप्पसत्थाणं । उव्वट्टणाए परिवट्टणाए आउंटणाए पसारणाए छप्पइय- संसारपडिक्कमणं चउव्विहं होइ आणपुवीए। संघट्टणाए कूइए कक्कराइए छीए जंभाइए आमोसे, भावपडिक्कमणं पूण तिविहं तिविहेण नेयव्वं ।। ससरक्खामोसे, आउलमाउलाए सोयणवत्तियाए, इत्थी (आवनि १२५०,१२५१) विप्परियासिआए दिद्विविप्परियासिआए मणविप्परिया- मिथ्यात्व, असंयम, कषाय, अप्रशस्त योग और संसार सिआए पाणभोयणविप्परियासिआए, तस्स मिच्छा मि (नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव) इन पांच स्थानों से दुक्कडं। (आव ४।६) मनुष्य को लौटना चाहिए। मैं शय्या संबंधी प्रतिक्रमण करता हं--प्रकाम शय्या भावप्रतिक्रमण का अर्थ है(अतिनिद्रा) और निकामशय्या (बार-बार निद्रा) ली प्रमाद न करना-मनसा, वाचा, कर्मणा । हो, उद्वर्तन, परिवर्तन (करवट बदलना), शरीर का प्रमाद न करवाना-मनसा, वाचा, कर्मणा । संकोच-विकोच, जं का संघटन, नींद में बोलना, दांत प्रमाद का अनुमोदन न करना-मनसा, वाचा, पीसना, छींक, जम्हाई, वस्तु का स्पर्श, सचित्त वस्तु का कर्मणा। स्पर्श-इनसे संबंधित स्खलना हुई हो; स्वप्नहेतुक पडिलेहेउं पमज्जिय भत्तं पाणं च वोसिरेऊणं । वसहीकयवरमेव उ णियमेण पडिक्कमे साहू ।। आकुलव्याकुलता, स्त्रीसंबंधी विपर्यास, दृष्टिविपर्यास, मनविपर्यास और आहारसंबंधी विपर्यास हआ हो तो हत्थसया आगंतु गंतु च मुहुत्तगं जहिं चिठे । पंथे वा बच्चंतो णदिसंतरणे पडिक्कमइ ॥ उससे संबंधित मेरा दुष्कृत निष्फल हो। (आवहावृ २ पृ ५०) स्वाध्याय-प्रतिलेखना-अतिचार प्रतिक्रमण पडिसिद्धाणं करणे किच्चाणमकरणे य पडिक्कमणं । पडिक्कमामि चाउकालं सज्झायस्स अकरणयाए, असहहणे य तहा विवरीयपरूवणाए य॥ उभओकालं भंडोवगरणस्स अप्पडिलेहणाए दुप्पडिलेहणाए (आवनि १२७१) अप्पमज्जणाए दुप्पमज्जणाए अइक्कमे वइक्कमे अइयारे मुनि प्रतिक्रमण कब करे ? अणायारे जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छामि १. प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर, दुक्कडं । (आव ४७) २. भक्तपान का परिष्ठापन कर, मैं प्रतिक्रमण करता हूं--चातुष्कालिक (दिन के प्रथम ३. उपाश्रय के कूड़े-कर्कट का परिष्ठापन कर, और अन्तिम प्रहर तथा रात के प्रथम और अन्तिम प्रहर ४. सौ हाथ की दूरी तयकर महत भर उस स्थान में में) स्वाध्याय न किया हो, दिन के प्रथम तथा अन्तिम ठहरने पर, प्रहर में पात्र, वस्त्र आदि उपकरणों का प्रतिलेखन न ५. यात्रापथ से निवृत्त होने पर, किया हो अथवा अविधि से किया हो, स्थान आदि का ६. नदीसंतरण करने पर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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