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________________ पुद्गल ४२३ अवरप्पओगजं जं अजीवरूवाइपज्जयावत्थं । पूर्व-पूर्वगत, दृष्टिवाद का अन्तरालवर्ती ग्रंथतमजीवभावकरणं तप्पज्जायप्पणावेक्खं ।। समूह। (विभा ३३५२) १. पूर्व नाम क्यों ? पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध, आठ स्पर्श और पांच संस्थान इनके पर्यायों का परिणमन अजीव भावकरण २. पूर्वो की रचना और गणधर है । अभ्र, इन्द्रधनुष आदि में रूप, रस आदि पर्यायों का ३. पूर्व के प्रकार जो स्वाभाविक परिणमन होता है, वह अजीव भावकरण ४. पूर्व के वस्तु है । इसमें रूप आदि पर्यायों का प्राधान्य है जबकि द्रव्य ५. पूर्वो की चूलिकायें विस्रसाकरण में द्रव्य का प्राधान्य है। (द्र. करण) ६. चौदह पूर्व : एक परिचय * पूर्व : दृष्टिवाद का एक भेद (द्र. दृष्टिवाद) ११. शब्द पुद्गल है ७. परीषहप्रविभक्ति का उद्गम : पूर्व शब्दस्तावन्मूतत्वात्पीदगलिको, मृत्तिभावोऽस्य प्रति- | ८. दशवकालिक का उद्गम घातविधायित्वादिभ्यः । उक्तं हि ९. चतुर्दशपूर्वी प्रतिघातविधायित्वाल्लोष्टवन्मूर्तता वने । • आगम नि!हण द्वारवातानुपाताच्च, धूमवच्च परिस्फुटम् ।। १०. पूर्वधर : दृष्टि और श्रुत (उशावृ प ५६१) * श्रुतकेवली (इ. श्रुतकेवली) शब्द पुद्गल है, क्योंकि वह मूर्त है । लोष्ट की भांति | ११. पूर्व और प्रत्येकबुद्ध शब्द भी प्रतिघात करता है, वायु की भांति द्वार में १२. चतुर्दशपूर्वी का ज्ञान परस्पर तुल्य प्रवेश करता है और धुएं की भांति चारों ओर फैल १३. चतुर्दशपूर्वी में ज्ञान की तरतमता : श्रुतनिबद्ध जाता है, इसलिए वह मूर्त है। भाव नाकाशगुणः शब्दः किन्तु पुद्गलगुणः, ऐन्द्रियकत्वात् | १४: अन्तर्मुहूर्त में चौदह पूर्वो की अनुप्रेक्षा रूपादिवदिति। (विभामवृ १ पृ ५७५) १५. अवसर्पिणी काल में पूर्वधरों का क्रम शब्द आकाश का गुण नहीं है। वह पुद्गल का गुण १६. चौदहपूर्वो की स्मृति को भजना है। जैसे रूप चक्षुग्राह्य होने के कारण पौद्गलिक है, वैसे ० श्रुतज्ञान के नाश के कारण ही शब्द श्रोत्रेन्द्रियग्राह्य होने के कारण पोद्गलिक है। । * भद्रबाहु और पूर्व वाचना (द. आगम) पुदगलपरावर्तन-जितने समय में एक जीव समस्त | * अंतिम चौवहपूर्वी (द्र आगम) लोकाकाश के प्रदेशों, समस्त | १७. अंतिम दसपूर्वी पुद्गलों आदि का स्पर्श करता * चतुर्दशपूर्वी : उत्कृष्ट बहुश्रुत (द्र. बहुश्रुत) है, वह एक पुद्गलपरावर्तन * सामायिक : चौवह पूर्वो का सार (द्र. सामायिक) है। उसका कालमान अनन्त * पूर्व : गमिक श्रुत (द्र. श्रुतज्ञान) उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी जितना * चतुर्दशपूर्वी और आहारक शरीर (द्र. शरीर) है। (द्र. काल) *पूर्वधर : एक लब्धि (द्र. लब्धि) (पुद्गलपरावर्तन के मुख्यतः चार भेद हैं-द्रव्य, | * चतुर्दशपूर्वी के ध्यान (द्र. ध्यान) क्षेत्र, काल और भाव। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैंबादर और सूक्ष्म । पुद्गलपरावर्तन में आहारकशरीर- १. पूर्व नाम क्यों ? वर्गणा को छोड़कर शेष सात वर्गणाओं का ग्रहण और जम्हा तित्थकरो तित्थपवत्तणकाले गणधराण सव्व ता है। देखें-अनयोगद्वार सत्र ६१६ का सताधारत्तणतो पूव्वं पुव्वगतसुत्तत्थं भासति तम्हा पुव्व त्ति टिप्पण।) भणिता । गणधरा पूण सुत्तरयणं करेन्ता आयाराइकमेण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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