SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 451
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परीषह ४.६ अचेल परीषह भिक्ष फल आदि का छेदन न करे, न कराए। उन्हें न शीत से प्रताड़ित होने पर मुनि ऐसा न सोचे-- पकाए और न पकवाए। मेरे पास शीत-निवारक घर आदि नहीं हैं और छवित्राण शरीर के अंग भूख से सूखकर काकजंघा नामक (वस्त्र, कम्बल आदि) भी नहीं हैं, इसलिए मैं अग्नि का तण जैसे दुर्बल हो जाएं, शरीर कृश हो जाए, धमनियों __ सेवन करूं। का ढांचा भर रह जाए तो भी आहार-पानी की मर्यादा उष्ण परीषह। को जानने वाला साधु अदीनभाव से विहरण करे। उसिणपरियावेणं, परिदाहेण तज्जिए । दिगिंछा -देशीपरिभाषया बुभुक्षा, सैवात्यन्तव्या- घिसु वा परियावेणं, सायं नो परिदेवए। कुलताहेतुरप्यसंयमभीरुतया आहारपाकप्रासुकानेषणीय उण्हाहितत्ते मेहावी, सिणाणं नो वि पत्थए । गायं नो परिसिंचेज्जा, न वीएज्जा य अप्पयं ।। भुक्तिवाञ्छाविनिवर्त्तनेन परि-समन्तात् सह्यत इति परीषहो दिगिंछापरीषहः। (उसुवृ प १७) (उ २१८,९) गर्म धलि आदि के परिताप, स्वेद, मैल या प्यास क्षुधा अत्यन्त व्याकुलता का हेतु है, फिर भी मुनि के दाह अथवा ग्रीष्मकालीन सूर्य के परिताप से अत्यन्त असंयमभीरु होता है, अतः वह आहार का पचन-पाचन, पीड़ित होने पर भी मुनि सुख के लिए विलाप न करेअनेषणीय आहार आदि की इच्छा का विनिवर्त्तन कर आकुल-व्याकुल न बने । गर्मी से अभितप्त होने पर भी भूख को सहन करता है-यह क्षुधा परीषह है । मेधावी मुनि स्नान की इच्छा न करे। शरीर को गीला पिपासा परीषह न करे । पंखे से शरीर पर हवा न ले। तओ पुट्ठो पिवासाए, दोगुंछी लज्जसंजए । दंशमशक परीषह सीओदगं न सेविज्जा, वियडस्सेसणं चरे ॥ पुट्रो य दंसमसएहिं, समरेव महामुणी। छिन्नावाएसु पंथेसु, आउरे सुपिवासिए । नागो संगामसीसे वा, सूरो अभिहणे परं ।। परिसुक्कमुहेऽदीणे, तं तितिक्खे परीसहं ।। न संतसे न वारेज्जा, मणं पि न पओसए । (उ २।४,५) उवेहे न हणे पाणे, भंजते मंससोणियं ।। अहिंसक या करुणाशील, लज्जावान् संयमी साधु (उ २।१०,११) प्यास से पीड़ित होने पर सचित्त पानी का सेवन न करे, डांस और मच्छरों का उपद्रव होने पर भी महामुनि किन्तु प्रासुक जल की एषणा करे । निर्जन मार्ग में जाते समभाव में रहे, क्रोध आदि का वैसे ही दमन करे जैसे समय प्यास से अत्यन्त आकुल हो जाने पर, मुंह सूख युद्ध के अग्रभाग में रहा हुआ शूर हाथी बाणों को नहीं जाने पर भी साधु अदीनभाव से प्यास के परीषह को गिनता हुआ शत्रुओं का हनन करता है। सहन करे। भिक्षु उन दंशमशकों से संत्रस्त न हो, उन्हें हटाए शीत परीषह नहीं। मन में भी उनके प्रति द्वेष न लाए । मांस और रक्त खाने-पीने पर भी उनकी उपेक्षा करे, किन्तु उनका चरंतं विरयं लहं, सीयं फूसइ एगया । हनन न करे । नाइवेलं मुणी गच्छे, सोच्चाणं जिणसासणं ॥ न मे निवारणं अत्थि, छवित्ताणं न विज्जई । अचेल परीषह अहं तु अग्गि सेवामि, इइ भिक्ख न चितए । परिजुण्णे हिं वत्थेहिं, होक्खामि त्ति अचेलए । (उ. २।६,७) अदुवा सचेलए होक्खं, इइ भिक्खू न चितए । विचरते हुए विरत और रूक्ष शरीर वाले साधु को एगया चेलए होइ, सचेले यावि एगया । शीत ऋतु में सर्दी सताती है । फिर भी वह जिन- एयं धम्महियं नच्चा, नाणी नो परिदेवए। शासन को सुनकर (आगम के उपदेश को ध्यान में (उ २।१२,१३) रखकर) स्वाध्याय आदि की वेला (मर्यादा) का वस्त्र फट गए हैं इसलिए मैं अचेल हो जाऊंगा अतिक्रमण न करे। अथवा वस्त्र मिलने पर फिर मैं सचेल हो जाऊंगा वस्त्र फट गए हैं इसलिए मैं अचेल हो जाऊंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy