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________________ शिवभूति और बोटिक मत है, जैसे कि अग्नि के द्वारा सोने और मिट्टी को पृथक् किया जाता है । सोऊण भन्नमाणं पच्चक्खाणं पुणो नवमपुव्वे । सो जावज्जीवावहियं तिविहं तिविहेण साहूणं || जंप पच्चक्खाणं अपरिमाणाए होइ सेयं तु जेसि तु परिमाणं तं दुट्ठ आससा होइ ॥ ( विभा २५१८, २५१९) साधु के यावज्जीवन तीन करण तीन योग से सावध योग के प्रत्याख्यान होते हैं। नवमें प्रत्याख्यान पूर्व की इस व्याख्या को सुनकर गोष्ठामाहिल विप्रतिपत्ति को प्राप्त हुआ । गोष्ठा माहिल ने कहा - अवधि रहित प्रत्याख्यान ही श्रेयस्कर है । जिस प्रत्याख्यान में अवधि / सीमा होती है वह प्रत्याख्यान आशंसा दोष से दूषित होता है । ६. शिवभूति और बोटिक मत छव्वाससयाई नवुत्तराई सिद्धि गयस्स वीरस्स । तो बोडियाण दिट्ठी रहवीरपुरे समुप्पण्णा ॥ रहवीरपुरनगरं दीवगमुज्जाणमज्जकण्हे य । सिवभूइस्सुवहिम्मि पुच्छा थेराण कहणा य ॥ बोडियविभूईओ बोडियलिंगस्स होइ उप्पत्ती । .... उवहिविभागं सोउं सिवभूई अज्जकण्हगुरुमूले । जिणकप्पियाइयाणं, भणइ गुरुं कीस नेयाणि ॥ जिण कप्पोऽणुचरिज्जइ ? वोच्छिन्नोति भणिए पुणा भणइ । तदसत्तस्सोच्छिज्जउ, बुच्छिज्जइ कि समत्थस्स ? .....सो बेइ परिग्गहओ कसाय मुच्छा भयाईया || गुरुणाऽभिहिओ जइ जं कसायहेऊ परिग्गहो सो ते । तो सो देहो च्चिय ते कसायउप्पत्तिहेउ ति ॥ ( विभा २५५० - २५५५, २५५८) निह्नव १. जमाली २. तिष्यगुप्त ३. आचार्य आषाढ के शिष्य ४. अश्वमित्र ५. गंग ६. रोहगुप्त ७. गोष्ठामा हिल Jain Education International प्रवर्तित मत बहुरतवाद जीवप्रादेशिकवाद अव्यक्तवाद समुच्छेदवाद द्वैयिवाद त्रैराशिकवाद अबद्धिवाद ३९७ निह्नव परिग्गहसब्भावे कसायमुच्छाभयादयो बहू दोसा, अपरिग्रहत्वं च सुते भणितं । एवं सव्वं जथाय निग्गतो । 'तेण य दो सीसा पव्वाविता - कोडिण्णो कोट्टिवीरो य । ततो सीसपसीसाणं परंपरं फासो जातो । ( आवचू १४२८ ) ऋषभपुर श्वेतविका वीर - निर्वाण के ६०९ वर्ष व्यतीत होने पर रथवीरपुर में बोटिक मत की उत्पत्ति हुई । रथवीरपुर के दीपक उद्यान में आचार्य कृष्ण के पास से शिवभूति ने दीक्षा स्वीकार की । शिवभूति ने गुरु जिनकल्पी सम्बन्धी उपधि का विवेचन सुनकर पूछाआजकल इतनी उपधि क्यों रखी जाती है ? आज जिनकल्प को स्वीकार क्यों नहीं किया जा सकता ? मिथिला उल्लुकातीर अंतरंजिका दशपुर गुरु ने कहा- जिनकल्प का विच्छेद हो गया । शिवभूति बोल- विच्छेद अशक्त व्यक्ति के लिए हुआ है, समर्थ व्यक्ति के लिए नहीं । पुनः शिवभूति ने कहा- परिग्रह से ही कषाय, मूर्च्छा और भय की उत्पत्ति होती है । आर्य कृष्ण ने कहा- यदि परिग्रह कषाय का कारण है तब देह भी कषाय की उत्पत्ति का हेतु है, इसलिए उसे भी छोड़ देना चाहिए । निह्नव उत्पत्ति स्थान श्रावस्ती शिवभूति को आचार्य के कथन पर विश्वास नहीं हुआ । उसने सबकुछ छोड़कर वहां से प्रस्थान कर दिया। वह बोटिकमत का प्रवर्तक कहलाया । उसने दो शिष्यों को प्रव्रजित किया— कोडिन्न और कोट्टवीर । शिष्यप्रशिष्य की परंपरा आगे तक चली । काल भ. महावीर के कैवल्य प्राप्ति के १४ वर्ष पश्चात् कैवल्य प्राप्ति के १६ वर्ष पश्चात् वीर निर्वाण सं. २१४ वीर निर्वाण सं. २२० वीर निर्वाण सं. २२८ वीर निर्वाण सं. ५४४ वीर निर्वाण सं. ५८४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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