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________________ नाथ ३८३ नाथ (प्रथम तीन नरक पृथ्वियों में परमाधामिक देव (यौवन) में मेरी आंखों में असाधारण वेदना उत्पन्न हई। नारकीय जीवों को भिन्न-भिन्न प्रकार की वेदना देते हैं। पार्थिव ! मेरा समूचा शरीर पीड़ा देने वाली जलन से उनके कार्यों के विवरण के लिए देखें---सूत्रकृतांग जल उठा । इन्द्र का वज्र लगने से होने वाली घोर वेदना नियुक्ति ५९-७५)। के समान मेरी वेदना थी । विद्या और मन्त्र के द्वारा चिकित्सा करने वाले प्राणाचार्य मेरी चिकित्सा करने के नाथ-जो योगक्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त लिए उपस्थित हुए। की सुरक्षा) करता है, वह नाथ कहलाता ते मे तिगिच्छं कुव्वंति चाउप्पायं जहाहियं ।' है-'नाथः योगक्षेमविधाता।' पिया मे सव्वसारं पि दिज्जाहि मम कारणा।" (उशावृ प ४७३) माया य मे महाराय ! पुत्तसोगदुहट्टिया ।" तरुणो सि अज्जो ! पव्वइओ भोगकालम्मि संजया। भायरो मे महाराय ! सगा जेट्टकणि?गा।" उवदिओ सि सामण्णे एयमझें सुणे मि ता॥ भइणीओ मे महाराय ! सगा जेट्टकणिट्ठगा ।" अणाहो मि महाराय ! नाहो मज्झ न विज्जई।' भारिया मे महाराय ! अणुरत्ता अणुव्वया ।" .."एवं ते इड्ढिमंतस्स कहं नाहो न विज्जई ? ॥ न य दुक्खा विमोएइ एसा मज्झ अणाहया ॥ होमि नाहो भयंताणं ! भोगे भुंजाहि संजया !... (उ २०१२३-२८, ३०) अप्पणा वि अणाहो सि सेणिया! मगहा हिवा!। चिकित्सा करने वालों ने गुरु-परंपरा से प्राप्त अप्पणा अणाहो संतो कहं नाहो भविस्ससि ? ॥ आयुर्विद्या के आधार पर मेरी चतुष्पाद चिकित्सा की। (उ २०१८-१२) मेरे पिता ने मेरे लिए उन प्राणाचार्यों को बहुमूल्य वस्तुएं (एक बार सम्राट् श्रेणिक उद्यान में गये। वहां दीं। महाराज ! पूत्र-शोक से पीडित मेरी माता, मेरे स्थित एक मुनि को देख सम्राट ने पूछा-) बड़े-छोटे सगे भाई, मेरी बड़ी-छोटी सगी बहनें, मुझमें ___आर्य ! अभी तुम तरुण हो । संयत ! तुम भोगकाल अनुरक्त और पतिव्रता पत्नी भी मुझे दुःख से मुक्त नहीं में प्रवजित हुए हो, श्रामण्य के लिए उपस्थित हुए हो- कर सकी - यह मेरी अनाथता है । इसका क्या प्रयोजन है ? – मैं सुनना चाहता हूं। सइंच जइ मुच्चेज्जा, वेयणा विउला इओ। ___मुनि ने कहा- महाराज ! मैं अनाथ हूं, मेरा कोई खंतो दंतो निरारंभो, पव्वए अणगारियं ।। नाथ नहीं है। एवं च चितइत्ताणं, पसुत्तो मि नराहिवा! । परियट्टतीए राईए, वेयणा मे खयं गया ।। तुम ऐसे सहज सौभाग्यशाली हो फिर कोई तुम्हारा नाथ कैसे नहीं होगा ? हे भदन्त ! मै तुम्हारा नाथ होता तओ कल्ले पभायम्मि, आपुच्छित्ताण बंधवे । खंतो दंतो निरारंभो, पव्वइओऽणगारियं ॥ है। संयत ! तुम विषयों का भोग करो। हे मगध के अधिपति श्रेणिक! तुम स्वयं अनाथ ततो हं नाहो जाओ, अप्पणो य परस्स य । हो । स्वयं अनाथ होते हुए भी दूसरों के नाथ कैसे सव्वेसिं चेव भूयाणं, तसाण थावराण य ।। होओगे? _(उ २०।३२-३५) कोसंबी नाम नयरी पुराणपुरभेयणी ।'' इस विपुल वेदना से यदि मैं एक बार भी मुक्त हो पढमे वए महाराय ! अउला मे अच्छिवेयण।। जाऊं तो क्षान्त, दान्त और निरारम्भ होकर अनगार अहोत्था विउलो दाहो सव्वंगेस य पत्थिवा ! ॥ वत्ति को स्वीकार कर लूं। ..."इंदासणिसमा घोरा वेयणा परमदारुणा ।। हे नराधिप ! ऐसा चिन्तन कर मैं सो गया। उवट्रिया मे आयरिया विज्जामंततिगिच्छगा।" बीतती हुई रात्रि के साथ-साथ मेरी वेदना भी क्षीण हो (उ २०१८,१९,२१,२२) गई। उसके पश्चात प्रभातकाल में मैं स्वस्थ हो गया। मुनि वोले-प्राचीन नगरों में असाधारण सुन्दर मैं अपने बन्धुजनों को पूछ, क्षान्त, दान्त और निरारम्भ कौशाम्बी नाम की नगरी थी। महाराज ! प्रथम वय होकर अनगारवत्ति में आ गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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