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________________ नरक ३७८ नरक का निर्वचन ११. नयविधि से अयुक्त भी युक्त नरक-वह स्थान, जहां जीव प्रकृष्ट पापजन्य अत्थं जो न समिक्खइ निक्खेव-नय-प्पमाणओ विहिणा । दुःखों का वेदन करते हैं। तस्साजुत्तं जुत्तं जुत्तमजूत्तं व पडिहाइ ॥ १. नरक का निर्वचन (विभा २२७३) | २. सात नरक और उनके गोत्र जो निक्षेप, नय, प्रमाण-इन विधियों से अर्थ का ३. नैरयिक जीवों की अवगाहना प्रतिपादन नहीं करता, उसे अयुक्त युक्त और युक्त ४. नरक आयुष्य बंध के कारण अयुक्त प्रतिभासित होता है। ५. नारक जीवों की आयुस्थिति एवं सविसयसच्चे परविसयपरंमुहे तए नाउं । • कायस्थिति नेएसु न संमुज्झइ न य समयासायणं कुणइ ॥ • गति (विभा २२७२) * सम्यक्त्वी-मिथ्यात्वी की गति-आगति . नयविधि को जानने वाला अपने विषय में प्रयुक्त (द्र. सम्यक्त्व) नय को सत्य और दूसरे द्वारा प्रयुक्त नय से पराङ्मुख • अंतरकाल होकर (उसका निराकरण अथवा स्थापन न करता हुआ) ६. नरक की वेदना सभी नयों को जानता है। वह ज्ञेय में संमूढ नहीं | ७. परमाधार्मिकदेवकृत वेदना होता और न सिद्धान्तों की आशातना ही करता है। *नारक जीवों में अवधिज्ञान, उसका संस्थान और १२. कालिकश्रुत और नय क्षेत्रमर्यादा (द्र. अवधिज्ञान) * नरकगति अशुभ नामकर्म पायं संववहारो ववहारतेहिं तिहिं य जं लोए। (द्र. कर्म) * नारक में लेश्या (द्र. लेश्या) तेण परिकम्मणत्थं कालियसुत्ते तदहिगारो ।। * नरयिक जीवों में श्रत और सम्यक्त्व सामायिक (विभा २२७६) (द्र. सामायिक) लोक में प्रायः नैगम, संग्रह और व्यवहार-इन | * नरकभूमियों का माप (द्र. अंगुल) तीन नयों का संव्यवहार होता है। इसलिए शिष्य की * नरक की अस्तित्व सिद्धि 5. गणधर) मति का परिकर्म करने के लिए कालिकश्रुत में इन तीन नयों का प्रयोग किया जाता है। १. नरक का निर्वचन नय के अपृथक्करण का हेतु नरान् कायन्ति-शब्दयन्ति योग्यताया अनतिक्रमेणासा गुग्गहोऽणुओगे वीसुं कासी य सुयविभागेण । कारयन्ति जन्तून् स्वस्थाने इति नरकाः तेषु भवा नारकाः । सुहगहणाइनिमित्तं नए य सुनिगूहियविभागे । (नन्दीमवृ प ७७) सविसयमसदहंता नयाण तम्मत्तयं च गिण्हंता । जो प्राणियों को उनकी योग्यता के अनुसार अपने मण्णंता य विरोहं अपरिणामातिपरिणामा ।। स्थान पर बुलाते हैं, वे नरक हैं। वहां उत्पन्न प्राणी गच्छेज्ज माह मिच्छ परिणामा य सुहुमाइबहुभेए। नारक कहलाते हैं। होज्जाऽसत्ता घेत्तुं न कालिए तो नयविभागो।। निष्क्रान्ता अयात्-इष्टफलदैवात्तत्रोत्पन्नानां (विभा २२९१-२२९३) सद्वेदनाऽभावेनेति निरयास्तेषु भवा नैरयिकास्तेषामायुः अल्पज्ञ, अव्युत्पन्न और अति तार्किक शिष्य नयों के । नैरयिकायुर्येन तेषु ध्रियन्ते । (उशावृ प ६४३) सूक्ष्म-सूक्ष्मतर भेद-प्रभेदों को पूरा समझ नहीं सकेंगे, तब तत्त्व को विपरीतरूप में ग्रहण करेंगे-यह जानकर जहां सद्भाग्य-विकल जीव उत्पन्न होते हैं और आर्यरक्षित ने श्रुतविभाग के द्वारा अनुयोग का जहां सवेदना का अभाव है, उन स्थानों को निरय पृथक्करण किया। शिष्य सब नयों के द्वारा श्रुत का या नरक कहा जाता है। वहां उत्पन्न जीव नैरयिक निरूपण समझने में असमर्थ हैं-यह जानकर आर्यरक्षित कहलाते हैं। वे जीव नैरयिक आयुष्य से बंधे हुए वहां ने समग्र श्रुत में नयविभाग से विस्तृत व्याख्या नहीं की। रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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