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________________ द्रव्य सौधर्म देवलोक से अनुत्तरविमान पर्यन्त देवलोकों में निवास करने वाले देवों में मोह आदि क्रमशः कम होते जाते हैं । अनुत्तर विमानवासी देवों का मोह अत्यंत उपशांत होता है । अधुनोपपन्नसंकाशाः प्रथमोत्पन्नदेवतुल्याः, अनुत्तरेषु हि वर्णद्युत्यादि यावदायुस्तुल्यमेव भवति । ( उशावृ प २५२ ) ३५० अधुनोपपन्न का अर्थ है तत्काल उत्पन्न देव । इसका तात्पर्य है कि उनमें औदारिक शरीरगत अवस्थायें नहीं होती । वे न बालक होते हैं न बूढ़े, सदा एक समान रहते हैं । अनुत्तर विमानवासी देवों का रूप-रंग और लावण्य जैसा उत्पत्ति के समय होता है वैसा अन्तकाल तक होता है । "मोहणियसायवेयणियकम्मउदयाओ । कामपसत्ता विरई कम्मोदयउ च्चिय न तेसि ॥ अणि मिस देवसहावा णिच्चिट्ठाणुत्तरा उ कयकिच्चा । कालानुभावा तित्थुन्नईवि अन्नत्थ कुव्वंति ॥ ( आवनि २ पृ १६० ) देव मोहनीय और सातवेदनीय कर्म के उदय के कारण कामासक्त होते हैं । अप्रत्याख्यान मोहनीय के उदय के कारण वे त्याग नहीं कर सकते। वे स्वभाव से ही अनिमेष होते हैं । अनुत्तर देव कृतकृत्य होने के कारण क्रिया नहीं करते । उचित समय में वे तीर्थ की प्रभावना में भी सहयोगी बनते हैं । १२. देव के मनुष्यलोक में आगमन के कारण नवरि जिणजम्म दिक्खा - केवल - निव्वाणमहनिओगेणं । भत्तीए सोम्म ! संसयविच्छेयत्थं व एज्जहण्हा ॥ पुव्वाणुरागओ वा समयनिबंधा तवोगुणाओ वा । नरगणपीडा - ऽणुग्गह-कंदप्पाईहिं वा केइ ॥ ( विभा १८७६, १८७७ देव निम्न कारणों से मनुष्य लोक में आ सकते हैं१. अर्हत् के जन्म, दीक्षा, कैवल्य और निर्वाण महोत्सव पर । २. भक्ति के वशीभूत होकर । ३. संशय दूर करने के लिए । ४. पूर्व जन्म के पुत्र, मित्र आदि के अनुराग से । Jain Education International देशविरति ५. पूर्वभव में किसी निश्चित संकेत आदि के द्वारा प्रतिबोध देने के लिए । ६. तपस्या आदि गुणों से आकृष्ट होकर । ७. पूर्वभव के बैर के कारण उसे पीड़ा देने के लिए । ८. पूर्वभव के मित्र आदि पर अनुग्रह करने के लिए । ९. हास्य, कुतूहल के कारण । १३. देव के मनुष्यलोक में न आने के कारण संकेत दिव्यपेम्मा विसयपसत्ताऽअसमत्तकत्तव्वा । अणही मणुयकज्जा नरभवमसुहं न एंति सुरा ॥ ( विभा १८७५ ) देव निम्न कारणों से मनुष्य लोक में नहीं आते-१. संक्रांत दिव्यप्रेम – उत्पन्न होते ही देवों का परस्पर घनिष्ठ प्रेम हो जाता है । २. विषयासक्ति - वे दिव्य कामभोगों में आसक्त हो जाते हैं । ३. असमाप्तकर्तव्य – वे अनेक कार्यों में नियुक्त हो जाते हैं । उन कार्यों में अतिव्यस्तता रहने के कारण । ४. अनधीनकार्य - वे मनुष्य के किसी कार्य के अधीन नहीं होते । ५. अशुभ गंध - वे मनुष्य लोक की दुर्गन्ध को सहन नहीं कर सकते । देशविरति - जो अंश रूप में व्रती होता है, उसकी आत्मविशुद्धि | ( द्र. गुणस्थान ) द्रव्य गुण और पर्याय का आश्रय । १. द्रव्य के निर्वाचन २. द्रव्य-गुण- पर्याय ३. द्रव्य के प्रकार * धर्मास्तिकाय * अधर्मास्तिकाय * आकाशास्तिकाय * काल * पुद्गल जीवास्तिकाय ४. पर्याय के लक्षण For Private & Personal Use Only ( द्र. अस्तिकाय) ( द्र. काल ) (द्र. पुद्गल ) (व्र. नीत्र) www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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