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________________ देव ३४६ कल्पातीत देव ३. त्रायस्त्रिश-मंत्रीस्थानीय । कल्पासीत देव दो प्रकार के हैं-अवेयक और ४. पारिषद्य मित्रस्थानीय । अनुत्तर। ५. आत्मरक्षक-स्वामीरक्षक। ग्रेवेयक देव ६. लोकपाल-सीमारक्षक । ग्रीवेव ग्रीवा लोकपुरुषस्य त्रयोदशरज्जूपरिवर्ती ७. अनीक-सैनिक और सेनापतिस्थानीय । प्रदेशस्तस्मिन्निविष्टतयाऽतिभ्राजिष्णतया च तदाभरण८. प्रकीर्णक-नगरवासी और देशवासी स्थानीय । भूता ग्रेवेया-देवावापास्तन्निवासिनो देवा अपि ग्रेवेयाः । ९. आभियोग्य-सेवकस्थानीय । (उशा प ७०२) १०. किल्विषक-अंत्यजस्थानीय । चौदह रज्जु प्रमाण लोकपुरुष का ग्रीवास्थानीय भाग कप्पोवगा बारसहा, सोहम्मीसाणगा तहा । है-तेरह रज्जु क; उपरि प्रदेश । उस लोकपूरुष के ग्रीवा सर्णकुमारमाहिंदा, बंभलोगा य लंतगा। स्थानीय प्रदेश में निवास करने वाले देव ग्रैवेयक कहलाते महासुक्का सहस्सारा, आणया तहा । आरणा अच्चुया चेव, इह कप्पोवगा सुरा । हेट्ठिमाहेट्ठिमा चेव, हेट्ठिमामज्झिमा तहा । (उ ३६।२१०,२११) हेट्ठिमाउरिमा चेव, मज्झिमाहेद्विमा तहा ॥ मज्झिमामज्झिमा चेव, मज्झिमाउवरिमा तहा। कल्पोपग देव बारह प्रकार के हैं--- उवरिमाहेट्ठिमा चेव, उवरिमामज्झिमा तहा ॥ १. सौधर्म ७. महाशुक्र उवरिमाउवरिमा चेव, इय गेविज्जग। सुरा ।... २. ईशान ८. सहस्रार (उ ३६।२१३-२१५) ३. सनत्कुमार ९. आनत प्रैवेयक देव नौ प्रकार के हैं४. माहेन्द्र १०. प्राणत ५. ब्रह्मलोक ११. आरण १. अधः-अधस्तन ६. मध्य-उपरितन २. अध:-मध्यम ७. उपरि-अधस्तन ६. लान्तक १२. अच्युत ३. अधः-उपरितन ८. उपरि-मध्यम सौधर्म देवलोक ४. मध्य-अधस्तन ९. उपरि-उपरितन सुधर्मा नाम शक्रस्य सभा। साऽस्मिन्नस्तीति सौधर्म: ५. मध्य-मध्यम कल्पः । स एषामवस्थितिविषयोऽस्तीति सौधर्मिणः । अनुत्तर देव (उशावृ प ७०२) ... विजया वेजयन्ता य, जयन्ता अपराजिया ।। शक की सभा का नाम है सुधर्मा । जहां यह सुधर्मा सव्वसिद्धगा चेव, पंचहाणुत्तर सुरा ।..... सभा है, वह सौधर्म देवलोक है। वहां सौधर्म देव रहते (उ ३६।२१५, २१६) अनुत्तर देव पांच प्रकार के हैं८. कल्पातीत देव १. विजय ४. अपराजित कल्पान् ... उक्तरूपानतीता:-तदुपरिवत्तिस्थानो- २. वैजयन्त ५. सर्वार्थसिद्धक त्पन्नतया निष्क्रान्ताः कल्पातीताः। (उशाव प ७०२) ३. जयन्त जो सौधर्म आदि बारह कल्पविमानों से ऊपर न विद्यन्ते उत्तरा:-प्रधाना स्थितिप्रभावसुखद्युतिग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं तथा जो लेश्यादिभिरेभ्योऽन्ये देवा इत्यनुत्तराः । (उशाव प ७०२) इन्द्र, सामानिक (स्वामी, सेवक) आदि की कल्पमर्यादा । आदि की कल्पमर्यादा अन्य देवों की अपेक्षा जिनकी स्थिति, प्रभाव, सुख, से अतीत हैं, वे कल्पातीत देव हैं। द्युति, लेश्या आदि अनुत्तर है, वे अनुत्तर देव हैं। कप्पाईया उजे देवा, दुविहा ते वियाहिया । सर्वेऽर्थाः सिद्धा इव सिद्धा येषां ते सर्वार्थसिद्धाः । ते गेविज्जाणुत्तरा चेव......" हि विजितप्रायकर्माणः, उपस्थितभद्रा एव तत्रोत्पत्तिभाजः। (उ ३६।२१२) (उशावृ प ७०३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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