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________________ ३६ ५. अनुयोगद्वार यह चूलिकासूत्र माना जाता है। चूलिका का अर्थ है- वर्णित विषय के व्याख्या सूत्रों का निरूपण । अनुयोगद्वार में पूर्वो की अध्ययन पद्धति का निरूपण है, इसलिए यह पूर्वज्ञान का परिशिष्ट माना जा सकता है । इस आगम का मूल ग्रन्थाग्र २१६२ श्लोक प्रमाण । यह बहुलांशतः गद्यमय । यत्र-तत्र पद्यों का भी समावेश है । इसकी रचना प्रश्नोत्तरी शैली प्रधान है। इसमें विविध विषय चर्चित हैं । इसके कर्त्ता पृथक्त्वानुयोग के प्रवर्तक आर्यरक्षित माने जाते हैं । इनका अस्तित्व काल है— वीर निर्वाण की पांचवीं छठी शताब्दी । इस पर तीन मुख्य व्याख्या ग्रन्थ हैं - चूर्णि, हारिभद्रीया वृत्ति और मलधारीया वृत्ति । चूर्णि ग्रन्थ- परिचय इसके कर्त्ता जिनदासगणी महत्तर हैं। इसका ग्रन्थाग्र २२६५ श्लोक प्रमाण है । इसकी भाषा प्राकृत है । इसमें अनुयोगविधि के विस्तृत विश्लेषण के साथ भौगोलिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक तथा सामाजिक विषयों का विवरण भी प्राप्त है । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 'शरीर पद' (पन्नवणा, पद १२ ) पर चूर्णि लिखी, जो इसमें अक्षरश: उद्धृत है । हारिमन्रीया वृत्ति आचार्य हरिभद्रकृत यह वृत्ति संक्षिप्त और चूर्णि की शैली में लिखी गई है । इस वृत्ति में यत्र-तत्र चूर्णि के पाठ प्राप्त होते हैं । परन्तु यह वृत्ति चूर्णि से विस्तृत विवरण देती है । मलघारीया वृत्ति मलधारी हेमचन्द्र (वि. बारहवीं शताब्दी) ने इस वृत्ति के माध्यम से चूर्णि और हारिभद्रीया वृत्ति की व्याख्या को सरस शैली में प्रस्तुत किया है। इसका ग्रन्थाग्र ५९०० श्लोक परिमाण है। इसमें कुछ नये तथ्य भी हैं। इस टीका का आधारग्रन्थ भी चूर्णि ही रहा है । ६. ओघनिर्मुक्ति यह नियुक्ति आवश्यक निर्युक्ति का एक अंग है । इसमें ओघ सामाचारी का निरूपण है। इसमें ८११ गाथाएं हैं । प्रथम गाथा में तीर्थंकर, चौदहपूर्वी, दसपूर्वी और एकादशांगधर को नमस्कार किया गया है । तत्पश्चात् प्रतिलेखना, पिण्ड, उपधिप्रमाण, अनायतन वर्जन, प्रतिसेवन, आलोचना और विशोधि - इन सात विषयों का सूक्ष्मता से प्रतिपादन किया गया है । उपसंहार में नियुक्तिकार ने बताया है कि जो निःशल्य होकर मारणांतिक आराधना करता है, वह उत्कृष्टतः तीन भवों में अवश्य मुक्त हो जाता है । ओघनिर्युक्ति-लघुभाष्य में करण, चरण, अनुयोग, सेवा, विहारविधि, भिक्षाग्रहणविधि, उपकरण, योग्यअयोग्य दाता आदि विषय प्रतिपादित हैं । इसमें ३२२ गाथाएं हैं। इसका बृहद् भाष्य अप्रकाशित है । ओघनिर्युक्तिचूर्णि का उल्लेख आवश्यक चूर्णि (पूर्वभाग, पृ ३४१ ) में मिलता है, अत: यह आवश्यक चूर्णि से प्राचीन है । ओ नियुक्ति और उसके लघु भाष्य पर द्रोणसूरि ने वृत्ति लिखी है । यह वृत्ति सरल एवं सुबोध है । इसमें कहीं-कहीं संस्कृत-प्राकृत के उद्धरण भी हैं। इसका रचनाकाल विक्रम की ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी है । वृत्ति का ग्रंथ-परिमाण लगभग ७००० श्लोक है । आचार्य मलयगिरिकृत वृत्ति अनुपलब्ध है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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