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________________ तीर्थंकर अरिष्टरत्नमय नेमि (चक्र) को ऊपर उठते हुए देखा, अतः बालक का नाम 'अरिष्टनेमि' रखा । सोऽरिने मिनामो उ, लक्खणस्सरसंजुओ । अहस्स लक्खणधरो, गोयमो कालगच्छवी ॥ वज्जरिसहसंघयणो, समचउरंसो झसोयरो । .... ( उ २२।५, ६) अरिष्टनेमि स्वर-लक्षणों से युक्त, एक हजार आठ शुभ लक्षणों का धारक, गौतम गोत्री और श्यामवर्ण वाला था । वह वज्रऋषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान वाला था । उसका उदर मछली के उदर जैसा था । अर्हत् अरिष्टनेमि का अभिनिष्क्रमण ..... तस्स राईमई कन्नं भज्जं जायइ केसवो ॥ अह सो तत्थ निज्जतो, दिस्स पाणे भयदुए । वाडेहिं पंजरेह च सन्निरुद्धे सुदुक्खिए || जीवितं तु संपत्ते, मंसट्ठा भक्खियव्वए । पासेत्ता से महापन्ने सारहिं इणमब्ववी ॥ कस्स अट्ठा इमे पाणा, एए सव्वे सुहेसिणो । वाडे हि पंजरेहिं च सन्निरुद्धा य अच्छाह ? | अह सारही तओ भणइ, एए भद्दा हु पाणिणो । तुझं विवाहकज्जमि, भोयावेउं बहुं जणं ॥ सोऊण तस्त वयणं, बहुपाणिविणासणं । चितेइ से महापन्ने, साणुक्कोसे जिएहि उ ॥ जइ मज्झ कारणा एए, हम्मिहिति बहू जिया । न मे एयं तु निस्सेसं परलोगे भविस्सई ॥ सो कुंडलाण जुयलं, सुत्तगं च महायो । आभरणाणि य सव्वाणि, सारहिस्स पणामए ॥ मणपरिणामे य कए, देवा य जहोइयं सव्वड्ढीए सपरिसा, निक्खमणं तस्स देवमणुस्सपरिवुडो, सीयारयणं तओ निक्खमिय बारगाओ, रेवययंमि ट्टिओ भगवं ॥ उज्जाणं संपत्तो, ओइण्णो उत्तिमाओ सीयाओ । साहस्सीए परिवुडो, अह निक्खमई उ चित्ताहि ॥ अह से सुगंधगंधिए, तुरियं मउयकुंचिए । सयमेव लुंचई केसे, पंचमुट्ठीहिं समाहिओ ॥ ( उ २२।६,१४-२४) केशव ने अरिष्टनेमि के लिए राजीमती कन्या की मांग की। विवाह के लिए जाते हुए अरिष्टनेमि ने भय से Jain Education International समोइण्णा । काउं जे ॥ समारूढो । ३२२ अरिष्टनेमि की शिष्य-सम्पदा संत्रस्त, बाड़ों और पिंजरों में निरुद्ध, सुदुःखित प्राणियों को देखा । वे मरणासन्न दशा को प्राप्त थे और मांसाहार के लिए खाए जाने वाले थे । उन्हें देखकर महाप्रज्ञ अरिष्टनेमि ने सारथि से इस प्रकार कहा "सुख की चाह रखने वाले ये सब प्राणी किसलिए इन बाड़ों और पिंजरों में रोके हुए हैं ।" सारथि ने कहा - "ये भद्र प्राणी तुम्हारे विवाह - कार्य में बहुत जनों को खिलाने के लिए यहां रोके हुए हैं ।" सारथि का बहुत जीवों के वध का प्रतिपादक वचन सुनकर जीवों के प्रति सकरुण उस महाप्रज्ञ अरिष्टनेमि ने सोचा - "यदि मेरे निमित्त से इन बहुत से जीवों का वध होने वाला है तो यह परलोक में मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं होगा ।" उस महायशस्वी अरिष्टनेमि ने दो कुंडल, करघनी और सारे आभूषण उतारकर सारथि को दे दिए । अरिष्टनेमि के मन में जैसे ही निष्क्रमण (दीक्षा) की भावना हुई, वैसे ही उसका निष्क्रमण - महोत्सव करने के लिए औचित्य के अनुसार देवता आए । उनका समस्त वैभव और उनकी परिषदें उनके साथ थीं । देव और मनुष्यों से परिवृत भगवान् अरिष्टनेमि शिविका रत्न में आरूढ़ हुआ । द्वारका से चलकर वह रैवतक ( गिरनार ) पर्वत पर स्थित हुआ । अरिष्टनेमि सहस्राम्रवन उद्यान में पहुंचकर उत्तम शिविका से नीचे उतरा। उसने एक हजार मनुष्यों के साथ चित्रा नक्षत्र में निष्क्रमण किया । समाहित अरिष्टनेमि ने सुगंध से सुवासित सुकुमार और घुंघराले बालों का पंचमुष्टि से अपने आप तुरन्त लोच किया । शिष्य-सम्पदा अरहतो णं अरिने मिस्स वरदत्तपामोक्खाओ अट्ठारस समणसाहसीओ, जक्खिणिपामोक्खाओ चत्तालीसं अज्जासाहसीओ, नंदप्पामोक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सी अउणतरि च सहस्सा उक्कोसिया, महासुव्वयपामोक्खाणं समणोवा सियाणं तिन्नि रायसाहसीओ छत्तीसं च सहस्सा, चत्तारि सया चोहसपुव्वीणं, पन्नरस सता ओही नाणी, पन्नरस सया केवलनाणीणं, पन्नरस सता वेउव्वियाण दस सता विपुलमतीणं, अट्ठसया वादी, सोलस सया अणुत्तरोववादियाणं । ( आवचू १ पृ १५९) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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