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________________ ग्रन्थ- परिचय आचार्य हरिभद्र ने दशर्वकालिक नियुक्ति पर 'शिष्यबोधिनी' वृत्ति लिखी। इसमें दशवैकालिक सूत्र की रचना के संदर्भ में आचार्य शय्यंभव का कथानक उद्धृत है। इसके अतिरिक्त अन्य कथानक और उद्धरण भी हैं । तप के संदर्भ में उद्धृत पांच संस्कृत श्लोकों में ध्यान का पूरा स्वरूप उजागर है । ( पत्र ३२ ) श्रोता के प्रसंग में न्याय के अवयवों का सांगोपांग विवेचन है । ( पत्र ३३ - ६८ ) ३४ षड्जीवनिका अध्ययन में जीव के अस्तित्व की सिद्धि, लक्षण आदि से संबद्ध विस्तृत दार्शनिक चर्चा की गई है । (पत्र १२१ - १३४ ) इस प्रकरण में कुछ भाष्य गाथाएं भी उद्धृत हैं । ३. उत्तराध्ययन जैन आगम चार वर्गों में विभक्त हैं -अंग, उपांग, मूल और छेद । उत्तराध्ययन 'मूल' वर्ग के अन्तर्गत परिगणित होता है। इसमें दो शब्द हैं- - उत्तर और अध्ययन | यह एककर्तृक ग्रन्थ नहीं, किन्तु संकलित सूत्र है । इसमें छत्तीस अध्ययन हैं। इनमें पांच अध्ययन - ९, १६, २३, २५ और २९ प्रश्नोत्तर शैली में लिखे गए हैं। प्रश्नोत्तर अन्य अध्ययनों में भी हैं। इसका प्रारंभिक संकलन वीर निर्वाण की पहली शताब्दी के पूर्वार्द्ध में और उत्तरार्ध का संकलन देवद्धिगणी के समय में संपन्न हुआ। इसकी नियुक्ति में प्रत्येक अध्ययन का विषय निर्दिष्ट है । उनतीसवां अध्ययन पूर्णरूपेण गद्यमय है और दूसरे तथा सोलहवें अध्ययन में गद्य-पद्य दोनों हैं। शेष अध्ययन पद्यात्मक हैं। इसके चार व्याख्या - ग्रन्थ हैं -निर्युक्ति, चूणि, बृहद्वृत्ति और सुखबोधा वृत्ति । निर्युक्ति इसका प्रथम व्याख्या-ग्रन्थ है - निर्युक्ति । इसमें ६०७ गाथाएं हैं । सर्वप्रथम उत्तर शब्द के १५ निक्षेप बताये गये हैं । द्रव्य श्रुत के प्रसंग में निह्नवों की चर्चा की गई है। संयोग के संदर्भ में परमाणुओं के परस्पर संबंध की विशद जानकारी दी गई है। परमाणु संयोग से जो संस्थान निर्मित होते हैं, उनकी स्थापनाएं भी दी गई हैं । चूर्णि यह प्राकृत संस्कृत में लिखी गई उत्तराध्ययन की महत्त्वपूर्ण व्याख्या है। अंतिम अठारह अध्ययनों की व्याख्या बहुत ही संक्षिप्त है । ग्रन्थकार ने अपना नाम 'गोपालिक महत्तर शिष्य' के रूप में उल्लिखित किया है । बृहद्वृत्ति ( शिष्यहिता या पाइयटीका) इसके कर्ता हैं - वादिवेताल शान्तिसूरि । इनका अस्तित्व-काल विक्रम की ११वीं शताब्दी है । बृहद्वृत्ति में स्थान-स्थान पर 'वृद्धसंप्रदाय' ऐसा उल्लेख मिलता है। 'वृद्ध' शब्द से उनको चूर्णिकार अभिप्रेत है। इस चूर्णि के अतिरिक्त भी कोई प्राचीन व्याख्या रही है, ऐसा प्रतीत होता है। इसमें अवतरणात्मक कथाएं प्राकृत में गृहीत हैं। उत्तराध्ययन की संस्कृत व्याख्याओं में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । सुखबोधा वृत्ति यह बृहद्वृत्ति से समुद्धृत लघु वृत्ति है । इसके कर्त्ता नेमिचन्द्रसूरी हैं । सूरिपद प्राप्ति से पूर्व इनका नाम देवेन्द्र था । इस वृत्ति का रचनाकाल वि. सं १९२९ है । यह वृत्ति प्राकृत कथाओं के कारण बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। प्राकृत भाषा की इन कथाओं का प्रणयन विशेष शैली में हुआ है। इनमें सांस्कृतिक तथ्यों की भी पूर्ण अभिव्यक्ति हुई है । ४. नन्दी नंदी का एक अर्थ है - आनन्द । ज्ञान सबसे बड़ा आनन्द है । इसमें ज्ञान का सांगोपांग वर्णन है इसलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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