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________________ कर्म तिथंच अथवा मनुष्य जघन्य क्षुल्लक भव का आयुष्य बांध लेता है । नाम, मोहनीय कर्म की जघन्य स्थिति का बंध करते हैंअनिवृत्ति बादर नामक गुणस्थानवर्ती जीव । आयुष्य कर्म की जघन्य स्थिति का बंध करते हैं - मिथ्यादृष्टि तियंच और मनुष्य । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, गोत्र और अन्तराय कर्म की जघन्य स्थिति का बंध करते हैं - सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थानवर्ती जीव । यह जघन्य स्थितिवन्ध कषायप्रत्ययिक है। योगप्रत्ययिक जघन्य स्थितिबन्ध उपशांतमोह आदि गुणस्थानों में होता है । २५. पुण्यकर्म पापकर्म १९२ सोहणवण्णागुणं सुभाणुभावं च जं तयं पुण्णं । विवरीयमओ पावं न बायरं नाइहुमं च ॥ ( विभा १९४० ) जिसके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि शुभ तथा जिसका विपाक शुभ है, वह पुण्य कर्म है । जिसके वर्ण, गन्ध आदि अशुभ हैं और जिसका विपाक अशुभ है, वह पाप कर्म है । ये दोनों पुद्गल न परमाणु के समान अति सूक्ष्म हैं और न अतिस्थूल हैं । कर्म की पुण्य प्रकृतियां पुरिस - इ - सुभाउ - नाम - गोत्ताइं । पावं नेयं तह नामे | य परघायं ॥ सायं सम्मं हासं पुण्णं, सेसं सविवागमविवागं ॥ ( सायं उच्चागोयं नर- तिरि देवाउयाई पणिदिजाई देवदुगं मणुयदुगं अंगोवंगाण तिगं पढमं संघयणमेव सुभवण्णाइचक्कं अगुरुलहू तह य ऊसासं आयावं उज्जोय विहगगई वि य तस बायर पज्जत्तं पत्तेय थिरं सुभं सुभगं ॥ सुस्सर आएज्ज जसं निम्मिण तित्थयरमेव एयाओ । बायालं पगईओ पुण्णं ति जिणेहि भणिआओ || ) भणितशेषास्तु द्वयशीतिप्रकृतयस्तत् सर्वमशुभत्वात् पापं विज्ञेयम् । पसत्था । तणुपणगं ॥ संठाणं । Jain Education International अन्ये तु मोहनीयभेदान् सर्वानपि जीवस्य विपर्यासहेतुत्वात् पापमेव मन्यन्ते । ततः सम्यक्त्व - हास्य- पुरुषवेदरतिवर्जा द्विचत्वारिशदेव प्रकृतयः पुण्यम् । ( विभा १९४६ मव पृ ६८९, ६९० ) सातावेदनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, हास्य, पुरुषवेद पाप प्रकृतियां रति मोहनीय, तिर्यंच आयुष्य, मनुष्य आयुष्य, देव आयुष्य, देवगति, देव आनुपूर्वी, मनुष्यगति, मनुष्य आनुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, पांच शरीर ( औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण), तीन अंगोपांग आहारक), वज्र ऋषभनाराच ( औदारिक, वैक्रिय, संहनन, समचतुरस्र संस्थान, शुभ वर्ण, शुभ गंध, शुभ रस, शुभ स्पर्श, अगुरुलघु, पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश, निर्माण और तीर्थंकर नाम तथा उच्च गोत्र – ये छियालीस पुण्य कर्म की प्रकृतियां हैं । एक मान्यता यह है कि मोहनीय कर्म की सर्व अठाईस प्रकृतियां विपर्यास का हेतु होने से पाप ही हैं । उस मान्यता के अनुसार सम्यक्त्व मोह, हास्य, पुरुषवेद और रति- इन चार प्रकृतियों को छोड़ शेष बयालीस पुण्य प्रकृतियां हैं । सम्यक्त्वं शोधितमिथ्यात्वपुद्गलरूपम्, तच्च शङ्काद्यर्थं हेतुत्वादशुभमेव अशुभत्वाच्च पापम् । ( विभामवृ १ पृ ६९० ) यद्यपि सम्यक्त्वमोहनीय मिथ्यात्व के पुद्गलों का शोधितरूप है फिर भी शंका आदि दोषों का हेतु होने से अशुभ ही है और अशुभ होने से यह पाप प्रकृति है । पाप प्रकृतियां ज्ञानावरण - ५ दर्शनावरण - ९ वेदनीय - १ मोहनीय २६ ( चारित्रमोह २५, दर्शन मोह १ ) आयुष्य – १ नाम - ३४ गोत्र - १ अन्तराय - ५ बयासी पाप प्रकृतियां हैं। दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियां मानी जाएं तो चौरासी पाप प्रकृतियां होती हैं । दर्शनमोहनीय की मूल प्रकृति एक मिथ्यात्व ही है । सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय प्रकृति का स्वतंत्र बन्ध नहीं होता । ये दोनों प्रकृतियां मिथ्यात्व के पुद्गलों का शोधित रूप हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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