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________________ कर्म सोपक्रम कर्म के दुष्डांत गोयं कम्मं दुविहं, उच्च नीयं च आहियं । ४. उपभोगान्तराय-वस्त्र, अलंकरण आदि की प्राप्ति उच्च अविहं होइ, एवं नीयं पि आहियं ।। होने पर भी व्यक्ति उनका उपभोग नहीं कर पाता। गोत्र कर्म दो प्रकार का है-उच्च गोत्र और नीच ५. वीर्यान्तराय- व्यक्ति बलवान् है, स्वस्थ है, तरुण है गोत्र । इन दोनों के आठ-आठ प्रकार हैं। फिर भी वह एक तिनके को भी तोड़ जाति, कुल, बल, तप, ऐश्वर्य, ज्ञान, लाभ और नहीं सकता। रूप की उच्चता से उच्च गोत्र तथा इन आठों की निम्नता से नीच गोत्र । १२. कर्म प्रकृतियों का उपक्रम ११. अन्तराय कर्म सव्वपगईणमेवं परिणामवसादुवक्कमो होज्जा । पायमनिकाइयाणं तवसा उ निकाइयाणं पि । अन्तरा-दातृप्रतिग्राहकयोरन्तर्भाण्डागारिकवद्विघ्न (विभा २०४६) हेततयाऽयते-गच्छतीत्यन्तरायम् । (उशाव प६४१) शुभ-अशुभ परिणामवश ज्ञानावरणीय आदि सब जैसे कोषाध्यक्ष राजा के द्वारा प्रदत्त राशि को देने कर्म प्रकृतियों का अपवर्तनाकरण के द्वारा उपक्रम होता में बाधा उपस्थित करता है, वैसे ही जो कर्म दान, लाभ, है। यह उपक्रम प्रायः अनिकाचित प्रकृतियों का ही होता भोग, उपभोग और शक्ति -इनमें बाधक बनता है, वह है। तपस्या के द्वारा निकाचित प्रकृतियों का भी उपक्रम है अन्तराय कर्म। होता है। दाणे लाभे य भोगे य, उवभोगे वीरिए तहा। उदय-खय-खयोवसमोवसमा जंच कम्मणो भणिया । पंचविहमंतरायं, समासेण वियाहियं । दव्वाइपंचयं पइ जुत्तमूवक्कामणमओ वि ।। (उ ३३/१५) (विभा २०५०) दानान्तरायं यत्सति विशिष्टे ग्रहीतरि देये च वस्तुनि कर्मों का उदय, क्षय, क्षयोपशम और उपशम द्रव्य तत्फलमवगच्छतोऽपि दाने प्रवृत्तिमुपहन्ति। यत्पुनर्वि- क्षेत्र, काल, भव और भाव के आश्रित होता है। शिष्टेऽपि दातरि यावन्निपुणेऽपि याचितरि उपलब्धिउप- हसला कर्मों का उपक्रम यक्तियक्त है। घातकृततल्लाभान्तरायं । भोगान्तरायं तु सति विभवादौ जेणोवक्कामिज्जइ समीवमाणिज्जए जओ जंतु । सम्पद्यमाने च आहारमाल्यादौ यद्वशान्न भुङक्त । उप- स किलोवक्कमकालो किरियापरिणामभइट्रो। भोगान्तरायं तु यस्योदयात्सदपि वस्त्रालङ्कारादि नोप (विभा २०३९) भङ क्ते । वीर्यान्तरायं यद्वशाबलवान्नीरुग्वयःस्थः अथ च जिस क्रिया विशेष से दूरस्थ को समीप लाया जाता तृगकुब्जीकरणेऽप्यसमर्थः। (उशावृ प ६४५) है, वह उपक्रम है। इसमें क्रिया-परिणाम (उपक्रम की अन्तराय कर्म के पांच प्रकार हैं हेतुभूत क्रियाओं) की बहुलता है । १. दानान्तराय-दान लेने वाला और देय वस्तु सोपक्रम कर्म के दृष्टान्त विशिष्ट है तथा दाता दान के फल से जह वा दीहा रज्जु डझइ कालेण पुंजिया खिप्पं । अभिज्ञ है, किन्तु दान की प्रवृत्ति में वियओ पडो व सुस्सइ पिंडीभूओ य कालेणं ॥ बाधा आती है। (विभा २०६१) २. लाभान्तराय-दाता भी विशिष्ट है और याचक जैसे फैली हई रज्जू को जलने में समय लगता है भी निपुण है किन्तु याचक की उप- और पुंजीभूत रज्जू शीघ्र जल जाती है, फैला हुआ लब्धि में बाधा आ जाती है। गीला वस्त्र जल्दी सूख जाता है और पिंडीभूत वस्त्र को ३. भोगान्तराय----सम्पदा होने पर भी व्यक्ति के भोग सूखने में समय लगता है, वैसे ही वेदनकाल में कर्मों का में बाधा आती है। वह आहार, उद्वर्तन और अपवर्तन होता है। माला आदि का भोग नहीं कर किंचिदकाले वि फलं पाइज्जइ पच्चए य कालेणं । पाता। तह कम्म पाइज्जइ कालेण विपच्चए वण्णं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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