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________________ उद्गम : विशोधिकोटि-अविशोधि कोटि १६१ एषणासमिति ऊंचा कर, मचान, स्तम्भ और प्रासाद पर चढ़ भक्तपान से एक निमन्त्रित करे तो मुनि वह दिया जाने वाला लाये तो साधु उसे ग्रहण न करे। निसैनी आदि द्वारा आहार न ले। दूसरे के अभिप्राय को देखे-उसे देना चढ़ती हुई स्त्री गिर सकती है। हाथ-पैर टूट सकते हैं। अप्रिय लगता हो तो न ले और प्रिय लगता हो तो ले ले। उसके गिरने से नीचे दबकर पृथ्वी के जीवों की तथा दोण्हं तु भुंजमाणाणं, दोवि तत्थ निमंतए। पृथ्वी आश्रित अन्य जीवों की विराधना हो सकती है। दिज्जमाणं पडिच्छेज्जा, जं तत्थेसणियं भवे ।। १४. आच्छेद्य (द ५११३८) अच्छिज्जपि य तिविहं पभू य सामी य तेणए चेव ।। जिस आहार के दो स्वामी या भोक्ता हों और दोनों अच्छिज्जं पडिकुटुं समणाण न कप्पए घेत्तं ॥ ही निमन्त्रित करें तो मुनि उस दीयमान आहार को, गोवालए य भयएऽखरए पुत्ते य धूय सुण्हाए। यदि वह एषणीय हो तो ले ले । अचियत्त संखडाई केइ पओसं जहा गोवो॥ १६. अध्यवतर (पिनि ३६६,३६७) अझोयरओ तिविहो जावंतिय सघरमीसपासंडे । आच्छेद्य के तीन प्रकार हैं मूलंमि य पुवकये ओयरई तिण्ह अट्ठाए। १. प्रभु - गृहस्वामी अपने पुत्र, पुत्री, नौकर, ग्वालों (पिनि ३८८) आदि की वस्तु को बलात् छीनकर साधु को देता अपने लिए पक रहे भोजन में साधु के निमित्त है- यह प्रभु आच्छेद्य दोष है। अधिक डालकर पकाना अध्यवतर दोष है। इसके तीन २. स्वामी-ग्रामनायक किसी कुटुम्ब आदि की वस्तु प्रकार हैंबलात् छीनकर साधु को देता है-यह स्वामी १. स्वगृहयावदर्थिक मिश्र । आच्छेद्य दोष है। २. स्वगृहसाधु मिश्र । ३ स्तेन .. चोर किसी से वस्तु को छीनकर साधु को , ३. स्वगृह पाखंडी मिश्र । देता है-यह स्तेन आच्छेद्य दोष है। मिश्र और अध्यवतर में अंतर बलात् छीनकर दी हुई भिक्षा लेने से साधु के तंदुलजलआयाणे पुप्फफले सागवेसणे लोणे । निम्न दोषों की संभावना रहती है-अप्रीति, कलह, परिमाणे नाणत्तं अज्झोयरमीसजाए य ।। अन्तराय, प्रद्वेष, आश्रय या ग्राम से निष्काशन, आहार (पिनि ३८९) आदि की अप्राप्ति आदि । मिश्रजात में चावल, जल, फल, शाक आदि का १५. अनिसृष्ट परिमाण साधु के निमित्त प्रारंभ में अधिक कर दिया अणिसिट्ठं पडिकुठं अणुनायं कप्पए सुविहियाणं । जाता है और अध्यवतर में इनका परिमाण मध्य में लड्डुग चोल्लग जंते संखडि खीरावणाईसु ।। बढ़ाया जाता है । (पिनि ३७७) ५. उद्गम : विशोधिकोटि-अविशोधि कोटि स्वामी की अनुमति के बिना आहार आदि ग्रहण एसो सोलसभेओ, दुहा कीरइ उग्गमो। करना अनिसृष्ट दोष है । इसके दो भेद हैं - एगो विसोहिकोडी, अविसोही उ चावरा ॥ १. चोल्लक अनिसृष्ट-भोजन सम्बन्धी। आहाकम्मुद्देसिय चरमतिगं पूइ मीसजाए य । २. साधारण अनिसृष्ट-मोदक, क्षीर, कोल्हू, विवाह, बायरपाहुडियावि य अज्झोयरए य चरिमदुगं ॥ दूकान आदि से संबंधित । कोडीकरणं विहं उग्गमकोडी विसोहिकोडी य । अननुज्ञात वस्तु ग्राह्य नहीं है। गृहस्थ द्वारा अनुज्ञात उग्गमकोडी छक्कं विसोहिकोडी अणेगविहा॥ वस्तु सुविहित मुनि के लिए ग्राह्य है। (पिनि ३९२,३९३,४०१) दोण्हं तु भुंजमाणाणं, एगो तत्थ निमंतए । सोलह उद्गम के दोष दो श्रेणियों में विभक्त हैंदिज्जमाणं न इच्छेज्जा, छंद से पडिलेहए॥ अविशोधिकोटि और विशोधिकोटि । (द ५।१।३७) १. अविशोधिकोटि--इसके छह प्रकार हैंजिस आहार के दो स्वामी या भोक्ता हों और उनमें आधाकर्म, औद्देशिक, पूतिकर्म, मिश्रजात, बादर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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