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________________ एषणासमिति उभिन्न ७. प्रादुष्करण पाओकरणं दुविहं पागडकरणं पगासकरणं च । पागड संकामण कुड्डदारपाए य छिन्ने वा ॥ (पिनि २९८) प्रादुष्करण के दो प्रकार हैं१. प्रकटकरण-देय वस्तु को अन्धकार से हटाकर प्रकाशित स्थान में रखना। २. प्रकाशकरण-अंधकार युक्त स्थान को प्रकाशित करने के लिए दीवार में छिद्र करना अथवा मणि, दीपक, अग्नि आदि से उसे प्रकाशित करना। नीयदुवारं तमसं, कोट्टगं परिवज्जए । अचक्खुविसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहगा ॥ (द ५१११२०) जहां चक्ष का विषय न होने के कारण प्राणी न देखे जा सकें, वैसे निम्न द्वार वाले अंधकारमय कोष्ठक का मुनि परिवर्जन करे। ८. क्रीत क्रीतं यत्साध्वर्थं मूल्येन परिगृहीतम् । (पिनिवृ प ३५) साधु के निमित्त खरीद कर भिक्षा देना क्रीत दोष १२. उदाभिन्न पिहिउब्भिन्नकवाडे फासुय अप्फासूए य बोद्धव्वे । अप्फासु पुढविमाई फासुय छगणाइदद्दरए । (पिनि ३४७) उभिन्न दोष के दो प्रकार हैं१. विहित उद्भिन्न -चपड़ी आदि से बंद पात्र का मुंह खोल कर भिक्षा देना। २. कपाट उभिन्न -बंद किवाड़ को खोलकर भिक्षा देना। दगवारएण पिहियं, नीसाए पीढएण वा। लोढेण वा वि लेवेण, सिलेसेण व केणइ ।। तं च उभिदिया देज्जा, समणट्ठाए व दावए । देंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ।। (द ५११४५,४६) जल-कुंभ, चक्की, पीठ, शिलापुत्र (लोढा), मिट्टी के लेप और लाख आदि श्लेष द्रव्यों से पिहित (ढके, लिपे और मूंदे हुए) पात्र का श्रमण के लिए मुंह खोलकर, आहार देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे- इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता। क्योंकि यह उद्भिन्न दोषयुक्त भिक्षा है। उब्भिन्ने छक्काया दाणे कयविक्कए य अहिगरणं । ते चेव कवाडंमिवि सविसेसा जंतमाईसु ॥ (पिनि ३४८) उभिन्न दोषयक्त भिक्षा लेने से उत्पन्न दोष१. छहकायविराधना-कुप्पी आदि को खोलते समय और पुनः बन्द करते समय सचित्त पृथ्वी, पानी आदि की विराधना होती है। लाख आदि द्रव्यों से मुद्रित करते समय अग्नि और वायु की विराधना होती है तथा मिट्टी में होने वाले चींटी आदि प्राणियों की भी विराधना होती है। २. अधिकरण--घी, तैल आदि को देते हुए या क्रय विक्रय करते हुए हिंसा आदि दोष लगते हैं। १३. मालापहृत दोष निस्सेणि फलगं पीढं, उस्सवित्ताणमारुहे । मंचं कीलं च पासायं, समणट्ठाए व दावए । दुरूहमाणी पवडेज्जा, हत्थं पायं व लूसए। पुढविजीवे वि हिंसेज्जा, जे य तन्निस्सिया जगा॥ (द ५११६७,६८) श्रमण के लिए दाता निसनी, फलक और पीढे को ९. प्रामित्य प्रामित्यं ---साध्वर्थमुच्छिद्य दानलक्षणम् । (दहावृ प १७४) प्रामित्य का अर्थ है -साध को देने के लिए कोई वस्तु दूसरों से उधार लेना। १०. परिवर्त परिवर्तितं यत्साधुनिमित्तं कृतपरावर्त्तम् । (पिनिवृ प ३५) साधु को देने के निमित्त वस्तु का विनिमय कर भिक्षा देना परिवर्त्त दोष है। ११. अभिहृत अभिहृतं-यत्साधुदानाय स्वग्रामात्परग्रामाद्वा समानीतम् । (पिनिवृ प ३५) साधु को देने के लिए दूर से अर्थात् अपने ग्राम से अथवा दूसरे ग्राम से लाकर भिक्षा देना अभिहत दोष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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