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________________ अहिंसा ७६ अहिंसा-संयम | सब जीवों के प्रति समता । अवध । १. अहिंसा की परिभाषा २. हिंसा-अहिंसा का स्वरूप ३. हिंसा के प्रकार ४. हिंसा से दुःख ५. हिंसा में योगों की तरतमता और कर्मबन्ध ६. हिंसक कौन ? अहिंसक कौन ? ७. अव्रती हिंसक ८. अप्रमत्त नियमतः अहिंसक ९. अहिंसा का व्यावहारिक हेतु १०. हिंसा-अहिंसा और नय ११. अहिंसा : श्रमण का आचार १२. अहिंसक यज्ञ अहिंसा महाव्रत अहिंसा व्रत * रात्रिभोजनविरमण और अहिंसा + • * हिंसा के द्रव्य, क्षेत्र ... १. अहिंसा को परिभाषा .... अहिंसा निउणं दिट्ठा, सव्वभूएस संजमो ॥ २. हिंसा-अहिंसा का स्वरूप (द्र. रात्रिभोजनविरमण ) ( ब्र. महाव्रत) (द्र. महाव्रत) ( व्र. आवक ) सब जीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है । पमत्तजोगस्स पाणववरोवणं हिंसा । प्रमादयुक्त प्रवृत्ति से प्राणवियोजन मणवयणकाएहि जोएहि दुप्पउत्तेहिं जसा हिंसा | (द६/८) ( अचू पृ १२ ) करना हिंसा है । जं पाणववरोवणं ( दजिचू पृ २० ) हिंसा का अर्थ है- दुष्प्रयुक्त मन, वचन और काया के योगों से प्राणव्यपरोपण करना । Jain Education International पाणातिवातवज्जणं । ( अचू पृ ९ ) अहिंसा नाम पाणातिवायविरती | ( दजिचू पृ १५) प्राणातिपात - प्राण- वियोजन न करना अहिंसा है । हिंसा में योगों की तरतमता और कर्मबंध अणुमित्तोऽवि न कस्सई बंधो परवत्थुपच्चओ भणिओ । तहवि अ जयंति जइणो परिणामविसोहिमिच्छंता ॥ (ओनि ५७) बाह्य वस्तु के निमित्त से किसी के भी स्वल्प मात्र भी बन्ध नहीं होता फिर भी परिणामों की विशुद्धि चाहने वाले को पृथ्वी आदि जीवों तथा समस्त बाह्य वस्तुओं के प्रति संयम रखना चाहिए । ३. हिंसा के प्रकार पाणातिवादुविहे - संकप्पओ य आरंभओ य । ( आवचू २ पृ२८१) प्राणातिपात दो प्रकार से होता है१. संकल्प से २. आरंभ ( प्रवृत्ति) से । जाणमाणो नाम जेसि चितेऊण रागद्दोसाभिभूओ घाइ । अजाणमाणो नाम अपदुस्समाणो अणुवओगेणं इंदियाइणावी पमातेण घातयति । ( दजिचू पृ २१७ ) हिंसा दो प्रकार से होती है-जान में और अनजान में। जान-बूझकर हिंसा करने वालों में राग-द्वेष की प्रवृत्ति स्पष्ट होती है और अनजान में हिंसा करने वालों अनुपयोग या प्रमाद होता है । ४. हिंसा से दुःख नहु पाणवहं अणुजाणे, मुच्चेज्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं । (3515) प्राणवध का अनुमोदन करने वाला पुरुष कभी दुःखों 'मुक्त नहीं हो सकता । ५. हिंसा में योगों की तरतमता और कर्मबंध जो य पओगं जुंजइ हिंसत्थं जो य अन्नभावेणं । अमणो उ जो पउंजइ इत्थ विसेसो महं वुत्तो ॥ हिंसत्थं जुंजतो सुमहं दोसो अनंतरं इयरो । अमणो य अप्पदोसो जोगनिमित्तं च विन्नेओ ॥ (ओनि ७५५,७५६) जो हिंसा के लिए मन, वाणी और काययोग का प्रयोग करता है, उसके महान् कर्मबन्ध होता है । जो अन्यभाव (अन्यमनस्कता) से योग का प्रयोग करता है, उसके अस्पतर कर्मबन्ध होता है । अमन ( वीतराग ) के अल्पतम कर्मबन्ध होता है । कर्मबन्ध योगनिमित्तज है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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