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________________ शरीर संबंधी अस्वाध्याय ७३ अस्वाध्याय युद्ध हो मोत्पातिक उन्हें यूपक कहा जाता है। कुछ आचार्य इसमें पंसू अ मंसरुहिरे केससिलावुट्ठि तह रउग्घाए । अस्वाध्यायिक नहीं मानते। जो मानते हैं, उनके मंसरुहिरे अहोरत्तं अवसेसे जच्चिरं सुत्तं ॥ अनुसार यूपक में तीन प्रहर तक अस्वाध्यायिक (आवनि १३३१) रहता है। औत्पातिक अस्वाध्याय के छह प्रकार हैं ७. यक्षादीप्त-आकाश में कभी-कभी दिखाई देने वाला १. पांशुवृष्टि, २. मांसवृष्टि, ३. रुधिरवृष्टि, विद्युत् जैसा प्रकाश। ४. केशवृष्टि, ५. ओलावृष्टि, ६. रजोद्घात। इनमें गन्धर्वनगर और यक्षादीप्त निश्चित ही मांस और रुधिरवष्टि के समय एक अहोरात्र और देवकृत होते हैं, शेष दिग्दाह आदि देवकृत भी होते शेष चारों में जब तक उनकी वृष्टि होती हो, तब तक हैं और स्वभाविक भी। गजित में दो प्रहर तथा शेष सबमें एक-एक सूत्र का स्वाध्याय वर्जित है। प्रहर तक अस्वाध्यायिक रहता है। देवप्रयुक्त गंधव्वदिसाविज्जूक्कगज्जिए जूअजक्खआलित्ते ।। म्युग्रह संबंधी इक्किक्क पोरिसी गज्जियं तु दो पोरसी हणइ॥ सेणाहिवई भोइय मयहरपुंसित्थिमल्लजुद्धे य । दिसिदाह छिन्नमूलो उक्क सरेहा पगासजत्ता वा। लोट्टाइभंडणे वा गुज्झग उड्डाहमचियत्तं ॥ संझाछेयावरणो उ जुवओ सुक्कि दिण तिन्नि ।। (आवनि १३४५) राजा, सेनापति, ग्रामभोजिक, ग्राममहत्तर, मल्ल, केसिंचि हुंतिऽमोहा उ जूवओ ता य हुँति आइन्ना। विशिष्ट स्त्री-पुरुष, व्यंतर देव-इनमें परस्पर कलहजेसि तु अणाइन्ना तेसि किर पोरिसी तिन्नि । यद्ध हो जाने पर. पथराव या हाथापाई होने पर जब (आवनि १३३४-१३३६) तक विग्रह शांत न हो, तब तक अस्वाध्यायिक रहता है। देवप्रयुक्त अस्वाध्याय के सात प्रकार हैं विग्रहकाल में स्वाध्याय करने पर उड्डाह-अवहेलना १. गन्धर्व -गन्धर्व द्वारा नगर का निर्माण। और अप्रीति होती है। २. दिग्दाह-कभी-कभी दिशाएं प्रज्वलित जैसी हो उठती हैं। उस समय का प्रकाश छिन्नमूल होता। शरीर संबंधी अस्वाध्याय है-आकाश में स्थित दीखता है, भूमि पर स्थित सारीरंपिय दुविहं माणुस तेरिच्छियं समासेणं। नहीं दीखता। तेरिच्छं तत्थ तिहा जलथलखहज चउद्धा उ ॥ ३. विद्युत् --बिजली का चमकना। काले तिपोरसिद्ध व भावे सुत्तं तु नंदिमाईयं । ४. उल्कापात --पुच्छल तारे आदि का टूटना। कुछ सोणिय मंसं चम्मं अट्ठी विय हुँति चत्तारि ॥ उल्काएं रेखा खींचती हुई गिरती हैं और कुछ केवल माणुस्सयं चउद्धा अढेि मुत्तूण सयमहोरत्तं । उद्योत करती हुई गिरती हैं। परिआवन्नविवन्ने सेसे तियसत्त अद्वैव ॥ ५. गजित--बादलों का गर्जना। (आवनि १३४९, १३५१, १३५५; ६. यूपक-सन्ध्या के विभाग का आवरण अथवा हावृ २ पृ १६६-१६९) सन्ध्याप्रभा और चन्द्रप्रभा का मिश्रण। शुक्लपक्ष शरीर संबंधी अस्वाध्याय के दो प्रकार हैंकी प्रतिपदा, द्वितीया और तृतीया का चन्द्रमा मनुष्य संबंधी-मनुष्य का कलेवर, रुधिर आदि। सन्ध्यागत होने से सन्ध्या का यथार्थ ज्ञान नहीं होता तिर्यंच संबंधी-मत्स्य, गौ, मयूर आदि के रुधिर आदि । अतः यह अस्वाध्यायिक काल है। ___ द्रव्य आदि दृष्टियों से इन पर विचार किया गया कई आचार्यों का अभिमत है कि शुक्लपक्ष की इन प्रथम तीन तिथियों में सूर्य के उदय और अस्त द्रव्य से-अस्थि, मांस, रक्त, चर्म। के समय ताम्रवर्ण जैसे लाल और कृष्ण-श्याम अमोघ क्षेत्र से मनुष्य संबंधी हो तो सौ हाथ और मोघा (आकाश में प्रलम्ब श्वेत श्रेणियां) होते हैं, तिथंच संबंधी हो तो साठ हाथ । त प्रकार है११४१३३६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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