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________________ ( १० ) कुमारपाल का बनवाया हुआ 'श्री सुविधिनाथ जी' के जिनमन्दिर का उद्धार श्रापदी के उपदेश से कराया गया था और आस पास चौवीस देवकुलिका बनायी गयीं थीं और उनकी प्रतिष्ठा आपके ही हाथ से करायी गयी, इस उत्सव पर मन्दिर में सत्तर १० हजार रुपयों की आमद हुई और दिव्य एक पाठशाला जी स्थापित हुई । सं० १०५८ का चौमासा दौर, और १९५० का शहर ' जालोर' में हुवा । इस चौमासे में जैनधर्म की बहुत बड़ी उन्नति हुई और मोदियों का कुसंप हटाकर सुसंप किया गया । फिर चौमासा उतरे बाद शहर आहोर में दिव्य ज्ञाननएकार की और एक घूमटदार जि मन्दिर की प्रतिष्ठा की । इस ज्ञानजएमार में बहुत प्राचीन २ ग्रन्थ हैं । पैंतालीस यागम और उनको पञ्चाङ्गी तिबरती ( तेहरी ) मौजूद है और प्राचीन महर्षियों के बनाये प्रन्थी अगणित मौजूद हैं, और छपी हुई पुस्तकें जी अपरिमित संग्रह की गयी हैं, इसकी सुरक्षा के लिये एक अत्यन्त सुन्दर मार्बुल ( पाषाण ) की आलमारी बनायी गयी है, जिसके चारो तरफ श्री गौतमस्वामी जी, श्रीसरस्वती जी, श्रीचक्रेश्वरी जी, और श्रीमविजयराजेन्द्रसूरीश्वर जी की मूर्तियां विराजमान हैं। यह जएकार आपही की कृपा से संग्रहीत हुआ है । फिर सूरीजी महाराज श्रहोर से विहार कर ' गुमे ' गाम में पधारे । यहाँ माघसुदी ५ के दिन 'चला जी' के बनवाये हुए मन्दिर की प्रतिष्ठा की । तदनन्तर शिवगञ्ज होकर ' बाली ' शहर में पधारे । यहाँ तीन श्रावकों को दीक्षा देकर 'श्रीकेसरिया जी' और 'श्री सिद्धाचल जी, ' तथा 'जोयणी जी' आदि सुतीर्थों की यात्रा करते हुए शहर 'सूरत' में पधारे । यहाँ पर सब श्रावकों ने बड़े जारी समारोह से नगरप्रवेश कराया और संवत् १९६० का चौमासा इसी शहर में हुआ । इस चौमासे में बहुत से धर्मद्रोही लोगों ने आपको उपसर्ग किया, परन्तु सद्धर्म के प्रजाव से उन धर्मद्रोही धर्मनिन्दकों का कुछभी जोर नहीं चला किन्तु सूरीजी महाराज को ही विजय प्राप्त हुआ । इस चौमासे का विशेष दिग्दर्शन ' राजेन्द्रसूर्योदय' और ' कदाग्रह दुर्ग्रह नो शान्तिमन्त्र' आदि पुस्तकों में किया जा चुका है, इससे यहाँ फिर लिखना पिष्टपेषण होगा । सम्वत् १७६१ का चौमासा शहर 'कूगसी' में हुआ । इसी चौमासे में सूरीजी महाराज ने हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण को बन्दोबद्ध संदर्भित किया, यह बात उसके प्रशस्तिश्लोकों में लिखी है दीपविजय मुनिनाऽहं यतीन्द्र विजयेन शिष्ययुग्मेन । विज्ञप्तः पद्यमयीं प्राकृतविवृतिं विधातुमिमाम् ॥ अत एव विक्रमाब्दे, नूरसेनवविधुमिते दशम्यां तु । विजयाख्यां चतुर्मास्येऽहं कूकसीनगरे ॥ हेमचन्द्रसंरचितप्राकृतसूत्रार्थबोधिनीं विवृतिम् । पद्यमयीं सच्छन्दोवृन्दै रम्यामकार्षमिमाम् ॥ अर्थात् मुनि विजय और यतीन्द्र विजय नामक दोनो शिष्यों से बन्दोबद्ध प्राकृतव्याकरण बनाने के लिये मैं प्रार्थित हुआ, इसीलिये विक्रम सं० १७६१ के चौमासे में आ For Private Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016041
Book TitleAbhidhan Rajendra kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri
PublisherAbhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
Publication Year1986
Total Pages1064
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size38 MB
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