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________________ ( ४ ) त्यन्त प्रशंसनीय थी अर्थात् रजो मुहपत्ती सर्वदा पास में रखना, दोनों काल ( स. (A) प्रतिक्रमण और प्रतिलेखन करना, श्वेत- मानोपेन वस्त्र धारण करना, स्त्रियों के परिचय से सर्वथा बहिर्भूत रहना, पठन और पाठन के अतिरिक्त व्यर्थ समय न खोकर निद्रादेवी के वशीभूत न होना, निन्तर अपनी उन्नति के उपाय खोजना, और धर्म - विचार या शास्त्र विचार में निमग्न रहना इत्यादि सदाचार से अतीव प्रशंसनीय प्राचीन समय में वर्ग था । जैसे आज कल यतियों की प्रथा विगड़ गयी है, वैसे वे लोग विगमे हुए नहीं थे, किन्तु इनसे बहुत ज्यादे सुधरे हुए थे। हाँ इतना जरूर था कि उस समय (१९०३) में जी कोई यति परिग्रह रखते थे, परन्तु महाराज 'श्रीप्रमोदविजयजी' की रहनी कहनी बिलकुल निर्दोष थी, अर्थात् उस समय के और (दूसरे ) यतियों की अपेक्षा प्रायः बहुत जागों में सुधरी हुई थी, इसी पुरुषरत्न 'श्री रत्नराजजी' ने वैराग्यरागरञ्जित हो यतिदीक्षा स्वीकार की थी । फिर कुछ दिन के बाद 'श्रीप्रमोद विजयजी गुरूकी आज्ञा से श्रीरत्नविजयजी ने 'मूँगी सरस्वती' विरुदधारी यतिवर्य श्रीमान् 'श्री सागरचन्द्रजी' महाराज के पास रहकर व्याकरण, न्याय, कोष, काव्य, और अलङ्कार आदि का विशेष रूप से अभ्यास किया । 'श्रीप्रमोद विजयजी' और श्रीसागरचन्द्रजी' महाराज की परस्पर अत्यन्त मित्रता थी । जब दोनों का परस्पर मिलाप होता था, तत्र लोगों को अत्यन्त ही श्रानन्द होता था । यद्यपि दोंनों का गच्छ जिन्न २ था, तथापि गच्छों के ऊगको में न पड़कर केवल धार्मिक विचार करने में तत्पर रहते थे, इसलिये 'श्री सागरचन्द्रजी' ने आपको अपने अन्तेवासी (शिष्य) की तरह पढ़ाकर हुशियार किया था । 'सागरचन्द्रजी' मरुधर (मारवाक) देश के यतियों में एक जारी विद्वान् थे, इनकी वि त्ता की प्रख्याति काशी ऐसे पुन्य क्षेत्र में भी थी, आप ही की शुभ कृपा से श्रीरत्नविजयजी' स्वल्पकाल ही में व्याकरण यदि शास्त्रों में निपुण और जैनागमों के विज्ञाता दो गये, परन्तु विशेषरूप से गुरुगम्य शैली के अनुसार अभ्यास करने के लिये तपागच्छाधिराज श्री पूज्य श्री देवेन्द्रसूरिजी महाराज के पास रहकर जैन सिद्धान्तों का अवलोकन किया और गुरुदत्त अनेक चमत्कारी विद्याओं का साधन किया । आपके विनयादि गुणों को और बुद्धिविचक्षणता को देखकर 'श्रीदेवेन्द्रसूरिजी' महाराज ने श्रापको शहर 'उदयपुर' में 'श्रीम विजयजी' के पास बड़ी दीक्षा और 'पन्यास ' पदवी प्रदान करवाई थी और अपने अन्त समय में पं० श्रीरत्न विजयजी ' से कहा कि- " ब मेरा तो यह समय लगा है, और मैंने अपने पाट पर शिष्य 'श्रीधीरविजय' को धरणेन्द्रसूरि' नामाङ्कित करके बैठाया तो है किन्तु अभी यह यज्ञ है, याने व्यवहार से परिचित नहीं है । इसलिये तुमको मैं श्रादेश करता हूँ कि इसको पढ़ाकर साक्षर बनाना Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016041
Book TitleAbhidhan Rajendra kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri
PublisherAbhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
Publication Year1986
Total Pages1064
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size38 MB
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