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________________ तब से आपकी सुरम्य चित्तवृत्ति विशेषरूप से निरन्तर वैराग्य की श्रोर ही आकर्षित रहने लगी, इसी से आप विषयवासनाओं से रहित होकर परमार्थ सिझ करने में और उच्चतम मुनिराजों के दर्शन प्राप्त करने में प्रोत्साहित रहते थे। एक समय 'श्रीकल्याणसुरिजी महाराज के शिष्य-यतिवर्य श्री प्रमोदविजयजी' महाराज विचरते विचरते शहर 'जरतपुर' में पधारे और आज्ञा लेकर उपाश्रय में ठहरे । सब लोग आपके पास व्याख्यान सुनने आने लगे। इधर 'रत्नराज जी देव दर्शन कर उपाश्रय में व्याख्यान सुनने के लिये आये । इस सुयोग्य सजा में 'श्रीप्रमोद विजयजी' महाराज ने संसार की क्षणिक प्रीति के स्वरूप को बहुत विवेचन के साथ दिखाया कि"अनित्यानि शरीराणि, विनवो नैव शाश्वतः” अर्थात् इस संसार में शरीरादि संयोग सब क्षणिक हैं, याने देखने में तो सुन्दर लगते हैं परन्तु अन्त में अत्यन्त पुःखदायक होते हैं और धन दौलत नी विनाशवान है इसके ऊपर मोद रखना केवल अझान ही है,क्यों कि-- " दुःखं स्त्रीकुदिमध्ये प्रथममिह भवे गर्नवासे नराणां, बालवे चापि दुःखं मलबुलिततनुस्त्रीपयःपानमिश्रम् ॥ तारुण्ये चापि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारे रे मनुष्याः ! वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किञ्चित् ? " ॥ १॥ अर्थात् इस संसार में पहिले तो गर्जवास ही में मनुष्यों को जननी के कुति (कँख) में पुःख प्राप्त होता है, तदनन्तर बाल्यावस्था में जी मलपरिपूर्ण शरीर स्त्रीस्तनपयः पान से मिश्रित फुःख होता है, और जवानी में भी विरह श्रादि से छःख उत्पन्न होता है, तथा वृद्धावस्था तो बिलकुल निःसार याने कफ वातादि के दोषों से परिपूर्ण है; इसलिये हे मनुष्यो ! जो संसार में थोमा जी सुख का देश हो तो बतलायो ? ॥ १ ॥ इसवास्ते अरे जव्यो ! परमसुखदायक श्री जिनेन्द्रप्ररूपित अहिंसामय धर्म की आरा. धना करो जिससे आत्मकल्याण हो । इस प्रकार हृदयग्राहिणी और वैराग्योत्पादिका गुरुवर्य की धर्मदेशना सुनकर रत्नराज'के चित्त में अत्यन्त उदासीनता उत्पन्न हुई और विचार किया कि-वस्तुगत्या संयोग मोह ही प्राणीमात्रको पुःखित कर देता है, इससे मुके उचित है कि-श्रात्मकल्याण करने के लिये इन्हीं गुरुवर्य का शरण ग्रहण करूँ, क्योंकि संसार के तापों से संतप्त प्राणियों की रक्षा करने वाले गुरु ही हैं। ऐसा विचार कर अपने संबन्धिवर्गों की अनुमति ( ाझा ) लेकर बझे समारोह के साथ संवत् १९०३ वैशाख सुदी ५ शुक्रवार के दिन शुभयोग और शुज नक्षत्र में महाराज 'श्री प्रमोद विजयजी' के कहने से उनके ज्येष्ठ गुरुज्राता 'श्रीहेमविजयजी' महाराज के पास यतिदीक्षा स्वीकार की, और संघ के समक्ष आपका नाम 'श्रीरत्नविजयजी' रक्खा गया। महानुभाव पाठकगण ! उस समय यतिप्रणाली की मर्यादा, प्रचलित प्रणाली से अ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016041
Book TitleAbhidhan Rajendra kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri
PublisherAbhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
Publication Year1986
Total Pages1064
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size38 MB
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