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________________ 210 जैन आगम : वनस्पति कोश . . . . (चेनोपोडियम ओलिडम)। विमर्श-बीजशब्द के चार अर्थ ऊपर दिए गए हैं। उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः समस्त भारत वर्ष में तथा प्रस्तुत प्रकरण में बीज शब्द के साथ गुल्म शब्द है। हिमालय प्रदेश में, ४.५ फुट की ऊंचाई तक खेतों में इसलिए यहां पुष्करमूल अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। बहुलता से बिना बोए पैदा होता है। बीज के पर्यायवाची नाम_ विवरण-हरे पत्तों वाले सर्वत्र पाये जाने वाले मूलं पुष्करमूलं च, पुष्करं पद्मपत्रकम्। बथुआ के अतिरिक्त इसकी बड़ी जाति के पत्र बड़े होते पद्म पुष्करजं बीजं, पौष्करं पुष्कराह्वयम् ।।१५२ ।। हैं। जो कुछ पुष्ट होने पर लाल रंग के हो जाते हैं। इसे काश्मीरं ब्रह्मतीर्थं च, श्वासारिर्मूल पुष्करम् ।। निघंटु में गौडवास्तुक नाम दिया गया है। यह लाल पत्र ज्ञेयं पश्चदशाह च, पुष्कराये जटाशिफे।।१५३ ।। वाली बड़ी जाति शाक-सब्जी के उद्यानों में आलू के खेतों मूल, पुष्करमूल, पुष्कर, पद्मपत्रक, पद्म, में कहीं-कहीं देखी जाती है। इसके पौधे बगीचों में ५-५ पुष्करज, बीज, पौष्कर, पुष्कराह्व, काश्मीर, बह्मतीर्थ, फुट तक ऊंचे होते हैं। यह बंगाल और बिहार के मध्य श्वासारि, मूलपुष्कर, पुष्करजटा तथा पुष्करशिफा ये सब भाग में बहुत पैदा होता है। बड़ी जाति में पारे की मात्रा पुष्कर मूल के पन्द्रह नाम हैं। अपेक्षाकृत अधिक होती है। (राज०नि० ६/१५२.१५३ पृ०१६५,१६६) (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ४ पृ०-४२६) अन्य भाषाओं में नाम हि०-पोहकरमूल । बं०-कुष्ठविशेष, पुष्कर मूल । म०-पुष्कर मूल । गु०-पोहकरमूल । कल-पुष्कपमूल। so-Oris root (ओरिसरूट) (पुष्करमूल पुष्करे प्रसिद्धम् । बीयगकुसुम पातालपद्मिनीति काश्मीरदेशप्रसिद्ध कन्दविशेष)। बीयगकुसुम (बीजककुसुम) पीले पुष्पवाली ते०-पुष्करदेशं लोमसिद्ध मैन औषधिविशेषम् । कटसरैया। जीवा०३/२८१ गौ०-पुष्करमूल)। (राज०नि०पृ०१६६) विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में बीयग कुसुम पीले रंग काश्मीर-पातालपद्मिनी। अ०-सोसनइरसा। की उपमा के लिए प्रयुक्त हुआ है। बीजक के ३ अर्थ फाo-बेखइ वनफ्शा । लेo-Iris germanicalinn (आइरिस् होते हैं-प्रियाल, मातुलङ्ग और श्वेतशिग्रु। प्रियाल और जरमॅनिका०लिन) Fam, Iridaceae (आइरिडेंसी)। श्वेतशिग्रु के कुसुम श्वेत रंग के होते हैं। शांतिचंद्रगणि उत्पत्ति स्थान-यह इरान तथा काश्मीर में उत्पन्न विरचित जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति की वृत्ति में बीयग का अर्थ होता है तथा काश्मीर में इसकी उपज भी की जाती है। मिलता है विवरण-इसका छोटा पौधा होता है। पत्ते अनेक, "कोरंटवर मल्लदामेति वा बीयग०। चौड़े तथा तलवार के आकार के होते हैं । पुष्प लम्बे दण्ड कुरण्टक पीले पुष्पवाली कटसरैया को कहते हैं। पर आते हैं। मूल कठोर, पीताभश्वेत, ५ से १० से.मी. लम्बे यह अर्थ उक्त उपमा के लिए उपयुक्त है। तथा २ से ३ से.मी. चौड़े टुकड़ों में चिपटे, वार्षिक वृद्धि के कारण उत्पन्न सान्तर, संकोचयुक्त, सुगन्धयुक्त एवं बीयगुम्म स्वाद में तिक्त रहते हैं। ३ साल पुराने पौधे की जड़ निकालकर छीलकर हलकी धूप में ५ से ६ दिन सुखाते बीयगुम्म (बीजगुल्म) पुष्करमूल। हैं फिर ३ वर्ष तक बंद करके रखते हैं तथा इसमें गंध जीवा०३/५८० ज०२/१० आती है। ताजी अवस्था में यह गंध हीन एवं स्वाद में बीजम् ।क्ली०। अङ्गुरे, बीजसारे, पद्मबीजे। कुछ कटु रहता है। मूल का उपयोग चिकित्सा में किया पुष्करमूले। जाता है। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०६६०) (भाव०नि० हरीतक्यादि वर्ग०पृ०६५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016039
Book TitleJain Agam Vanaspati kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size8 MB
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