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________________ जैन आगम : वनस्पति कोश 183 अमृतनवा, अमृतवल्ली चित्रकूट देशे प्रसिद्धा। (राज०नि०३/१४० पृ०५६) परुषक, नीलवर्ण, रोषण, धन्वनच्छद, पारावत, मृदुफल, पुरुष, परुष, पर ये परुषके पर्याय हैं। (कैयदेव नि० ओषधिवर्ग पृ०७३) अन्य भाषाओं में नाम हि०-फालसा। बं०-फलूसा। म०-फालसा। क०-वेट्टहा, दागल। ते०-चिट्टित। गु०-फालसा। फा०--फालसा पालसह । अ०-फालसाहाले०-Grewia asiatica linn (ग्रिविया शियाटिका) Fam. Tiliaceae (टिलिएसी)। GREWIA ASIATICA LINN. - AVM TAMILEON पाणी पाणी ( ) पानीबेल, गोविल। प०१/४०/४ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में पाणि शब्द वल्ली वर्ग के अन्तर्गत है। पाणी शब्द राजस्थानी भाषा में व्यवहृत होता है। हिन्दी भाषा में पानी शब्द मिलता है। हिन्दी भाषा में पानी बेल को गोविल बेल कहते हैं । धन्वन्तरिवनौषधि विशेषांक में इसका वर्णन इस प्रकार मिलता है। अन्य भाषाओं में नाम बं०, हि०-गोविल, पानी बेल, मूसल, मुरीया । गु०-जंगलीद्राख । म०-गोंलिदा। ले०-Vitis Latifolia (ह्विटिस लेटिफोलिया)। उत्पत्ति स्थान-यह लता भारत के उत्तर पश्चिम के जंगलों में तथा दक्षिण में पर्व एवं पश्चिम किनारों के वन प्रान्तों में विशेष पाई जाती है। विवरण-द्राक्षा कुल की इसकी लता दाख की लता जैसी ही पतली, लम्बी, बीच-बीच में संधियों से युक्त, कुछ बैंगनी रंग की होती है। पत्र द्राक्षापत्र जैसे पत्रों के सामने की ओर से तन्त निकलते हैं। जिस पर सुंदर लालरंग के फूलों के गुच्छे आते हैं। फल कुछ गोलाकार, काले रंग के करौंदे जैसे लगते हैं। इसकी लता, पत्र, पुष्प, फलादि सब द्राक्षा लता जैसे ही होते हैं। किन्तु ये खाने के काम में नहीं आते, कुछ कडवे कसैले से होते हैं। इसे जंगली दाख भी कहते हैं (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ०४६८) शारव पुष्प पारावय पारावय (पारावत) फालसा जीवा०३/३८८ पारावतम् ।क्ली०। परुषकफले (चरक संहिता सूत्र स्थान २६ अध्याय। (वैद्यक शब्द सिन्धु पृ०६६१) पारावत के पर्यायवाची नाम परुषको नीलवर्णो, रोषणो धन्वनच्छदः पारावतो मृदुफलः, पुरुषः परुषः परुः ।।३६१।। उत्पत्ति स्थान-इसको अनेक प्रान्तों के लोग बागों में रोपण करते हैं। इसकी अन्य जातियों को भी फालसा कहा जाता है। विवरण-इसका वृक्ष छोटा होता है। पत्ते ४ से ५ इंच लम्बे, २ से २.5 इंच चौड़े, गोलाकार एवं दंतुर होते हैं। दन्त अनियमित होते हैं तथा आधार की तरफ कुछ तिरछे होते हैं। फूल झूमकों में पीले रंग के आते हैं। फल मटर के समान गोल, कच्ची अवस्था में हरे रंग के और पकने पर जामुनी रंगके हो जाते हैं। इसका स्वाद खट्टा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016039
Book TitleJain Agam Vanaspati kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size8 MB
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