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________________ जैन आगम : वनस्पति कोश 127 जीवा० ३/५८० इसका गुल्म मृदुरोमश, लता के समान आरोहणशील या फैला हुआ रहता है। डब्भ डब्भ (दर्भ) डाभ ।श्वेतदर्भ प० १/४२/१ विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में यह तृणवर्ग के अन्तर्गत णंगलई णंगलई (लाङ्गलकी) कलिकारी,कलिहारी भ० २३/८ प० १/४८/६ विमर्श-आचार्य हेमचन्द्र की प्राकृतव्याकरण सूत्र १/५६ के अनुसार इस शब्द की छाया लाङ्गलकी बनती है। प्रस्तुत प्रकरण में यह शब्द कंदवर्ग में है इसलिए लाङ्गलकी का अर्थ कलिकारी ग्रहण कर रहे हैं। इस वनस्पति के कंद होते हैं। लाङ्गलकी-स्त्री। कलिकारी। (आयुर्वेदीय शब्दकोश पृ० १२२६) लाङ्गलकी-स्त्री० कलिहारी (शालिग्रामौषध शब्द सागर पृ. १५७) लाङ्गलकी के पर्यायवाची नाम कलिहारी तु हलिनी, लाङ्गली शक्रपुष्यपि। विशल्याग्निशिखानन्ता वह्निवक्त्रा च गर्भनुत् कलिहारी, हलिनी, लाङ्गली, शक्रपुष्पी, विशल्या अग्निशिखा, अनन्ता वह्निवक्त्रा और गर्भनुत् ये कलिहारी के संस्कृत नाम हैं। (भाव०नि० गुडूच्यादि वर्ग० पृ० ३१२,३१३) दर्भ के पर्यायवाची नाम कुशो दर्भो हस्वदर्भो, याज्ञेयो यज्ञभूषणः | श्वेतदर्भः पूतिदर्भो, मृदुदर्भो लवः कुशः ।।१२३६ ।। बर्हिः पवित्रको यज्ञसंस्तरः कुतपोऽपरः कुश, दर्भ, हस्वदर्भ, याज्ञेय, यज्ञभूषण, श्वेतदर्भ, पूतिदर्भ, मृदुदर्भ, लव, कुश, बर्हि, पवित्रक, यज्ञसंस्तर, कुतप ये दर्भ के पर्यायवाची नाम हैं। (कैयदेव निघंटु ओषधिवर्ग पृ० २२६) अन्य भाषाओं में नाम हि०-कुशा, दाभ, कुसघास । म०-दन। बं०- कुश | पं०-दभ, द्रभ । गु०-दाभडो, दरभ । कo-वीलीय, बुट्टशशी । ते०-कुश, दर्बालुं । ता०-दर्भ। लेo-Eragrostis cynosuroides Beauv (इरेग्रॉस्टिस् साइनो सुरोइडीस् बी) Fam. Gramineae (ग्रॉमिनी)। उत्पत्ति स्थान-यह खुले हुए घास के मैदानों में सर्वत्र पाया जाता है। विवरण-इसके पौधे, मोटे, बहुवर्षायु, दृढ़ तथा १ से ३ फीट ऊंचे होते हैं । मूलस्तम्भ सीधा खड़ा परन्तु बहुत गहराई तक होता है। पत्ते १८ इंच तक लम्बे.२ इंच चौडे. अग्र पर कांटे की तरह तीक्ष्ण और पत्रतट सूक्ष्म रोमों के कारण तेज धार का होता है। पुष्पदंड ६ से १८ इंच लम्बा तथा सीधा होता है। बीज १/४ इंच लम्बे, अंडाकार तथा चपटे होते हैं। वर्षा ऋतु में पुष्प तथा शीत ऋतु में फल लगते हैं। __इसकी छोटी जाति को कुश तथा बड़ी जाति को दर्भ कहते हैं। दर्भ के पत्ते लम्बे तथा खर होते हैं। (भाव० नि० गुडूच्यादिवर्ग० पृ० ३८२) WAR Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016039
Book TitleJain Agam Vanaspati kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size8 MB
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