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________________ लेश्या-कोश ४८९ टीकाकार का कहना है, "सलेशी जीव पूर्वोक्त हेतु से तीसरे भंग को बाद देकर-अन्य भंगों से वेदनीय कर्म का बन्धन करता है लेकिन उसमें चतुर्थ भंग नहीं घट सकता है क्योंकि चतुर्थ भंग लेश्या रहित अयोगी को ही घट सकता है । लेश्या तेरहवें गुणस्थान तक होती है तथा वहाँ तक वेदनीय कर्म का बन्धन होता रहता है। कई आचार्य इसका इस प्रकार समाधान करते हैं कि इस सूत्र के वचन से अयोगीत्व के प्रथम समय में घण्टालाला न्याय से परम शुक्ललेश्या संभव है तथा इसी अपेक्षा से सलेशी-शुक्ललेशी जीव के चतुर्थ भंग घट सकता है। तत्त्व बहुश्रुतगम्य है।" हमारे विचार में इसका एक यह समाधान भी हो सकता है कि लेश्या परिणामों की अपेक्षा अलग से वेदनीय कर्म का बन्धन होता है तथा योग की अपेक्षा अलग से वेदनीय कर्म का बन्धन होता है । बारहवें गुणस्थान में शुक्ललेश्या होने वाला कर्म-बंधन निरन्तर चालु है, तेरहवें गुणस्थान में कोई एक जीव ऐसा हो सकता है जिसके लेश्या की अपेक्षा से वेदनीय कर्म का बन्धन रूक जाता है लेकिन योग की अपेक्षा से चालू रहता है। अधि प्रति गाथा प्रप्रा भा चू अध्ययन, गाथा, सूत्र आदि को संकेत सूची अध्ययन, अध्याय प्रश्न अधिकार प्रत्तिपत्ति उद्देश, उद्देशक प्रा प्राभृत प्रतिप्राभृत चरण भाष्य चूर्णी भाग भाग चूलिका लाइन टीका दशा वार्तिक द्वार वृत्ति नियुक्ति शतक पद श्रुतस्कंध पंक्ति श्लोक पृष्ठ समवाय पैरा सूत्र प्रकीर्णक स्था स्थान व । प्रकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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