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________________ ४८८ लेश्या-कोश : अभिनिष्क्रमण के समय भगवान ने जब श्रेष्ठ पालकी में आरोहण किया उस समय दो दिन का उपवास था, उन के अध्यवसाय शुभ थे तथा लेश्या विशुद्धमान थी। '६६ ३८ वेदनीय कर्म का बन्धन तथा लेश्या 'जीवे णं भंते ! वेयणिज्जं कम्मं किं बंधी० पुच्छा ? गोयमा ! अन्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ १, अत्थेगइए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ २, अत्थेगइए बधी न बंधइ न बंधिस्सइ ४, सलेस्से वि एवं चेव तइयविहूणा भंगा। कण्हलेस्से जाव-पम्हलेस्से पढम-बिइया भंगा, सुक्कलेसे तइयविहूणा भंगा, अल्लेसे चरिमो भंगो। कण्हपक्खिए पढमबिइवा । मुक्कपक्खिया तइयविहूणा। एवं सम्मदिहिस्स वि ; मिच्छादिहिस्स सम्मामिच्छादिहिस्स य पढम बिइया। णाणिस्स तइयविहूणा, आभिणिबोहिय, जाव मणपज्जवणाणी पढमबिइया, केवलनाणी तइविहूणा । एवं नो सन्नोवउत्ते, अवेदए, अकसायी । सागारोवउत्ते अणागारोवउत्ते एएसु तइयविहणा। अजोगिम्मि य चरिमो, सेसेसु पढमविइया । -भग० श २६ । उ १ । सू १७ । पृ० ८६६-६०० . वेदनीय कर्म ही एक ऐसा कर्म है जो अकेला भी बन्ध सकता है । यह स्थिति ग्यारहवें, बारहवे, तेरहवें गुणस्थान के जीवों में होती है। इन गुणस्थानों में वेदनीय कर्म के अतिरिक्त अन्य कमों का बन्धन नहीं होता है । इनमें से ग्यारहवे तथा बारहवें गुणस्थान वाले को चतुर्थ भंग लागू नहीं हो सकता है। चौदहवें गणस्थान के जीव के निर्विवाद चतुर्थ भंग लागू होता है। उपरोक्त पाठ से यह ज्ञात होता है कि सलेशी-शुक्ललेशी जीवों में कोई एक जीव ऐसा होता है जिसके चतुर्थ भंग से वेदनीय कर्म का बन्धन होता है अर्थात् वह शुक्ललेशी जीव वर्तमान में न तो वेदनीय कर्म का बन्धन करता है और न भविष्यत् में करेगा। चौदहवें गणस्थान का जीव सलेशी-शुक्ललेशी नहीं हो सकता है। अतः उपरोक्त शुक्ललेगी जीव तेरहवें गुणस्थान वाला ही होना चाहिए। लेकिन बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थान के जीव के साता वेदनीय कर्म का बन्धन ईर्यापथिक के रूप में होता रहता है। बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थान का जीव वेदनीय कर्म का अबन्धक नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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