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________________ ( 61 ) भेद मानते हैं। जीव शरीर सात है तव उनकी छाया भी सप्तवर्णात्मिका होगी। कहा है षट् सप्तमी संयोगजा इयं च शरीरच्छायात्मका परिगृह्यते अन्येत्वौदारिकौदारिकमिश्रमित्यादिभेदतः सप्तविधत्वेन जीवशरीरस्य तच्छायामेव कृष्णादिवर्णरूपा नोकर्माणि सप्तविधां जीवद्रव्यलेश्यां मन्यन्ते तथा -उत्त० अ ३४ । टीका । जयसिहसूरि पृ० ६५० अर्थात् संयोगजा नामक एक सातवीं लेश्या होती है ( द्रव्य कर्म लेश्या के कृष्णादि ६ भेद हैं ) यह शरीर छाया रूप है। कहीं द्रव्य लेश्या के अनुरूप भाव परिणति होती है और कहीं द्रव्य लेश्या के अननुरूप परिणति होती है। मृत्यु पर्यन्त देव-नारकी में एक रूप में जो लेश्या साथ रहती है-वह भी द्रव्य लेश्या है। नारकी में स्थित द्रव्य लेश्या प्रथम तीन तथा देवों में छः लेश्या है। प्रज्ञापना में ज्योतिसी देवों के वर्णन में ताराओं के लिए कहा गया है-ताराओं में पांच वर्ण होते हैं और वे स्थित लेश्याचारी होते है।" __ दस आश्चर्य है उनमें एक आश्चर्य ( अच्छेरा ) उपसर्ग-तीर्थङ्करों को उपसर्ग होना। केवल ज्ञान उत्पन्न होने के बाद तीर्थङ्करों को कोई उपसर्ग नहीं होते। किन्तु भगवान महावीर केवल ज्ञान प्राप्ति के बाद अपनी तेजो लब्धि से गोशालक को बहुत पीड़ित किया-यह एक आश्चर्य है । कहा है (उवसग्गे ) तीर्थकरा हि अनुत्तरपुण्यसम्भारतया नोपसर्गभाजनमपि तु सकलनरामरतिरश्चां सत्कारिस्थानमेवेत्यनन्तकालभाव्यमर्थों लोकेऽद्भुत इति । -ठाण० स्था १ । सू १६० । टीका द्रव्यलेश्या क्या है ? १-द्रव्यलेश्या अजीव पदार्थ है। २-यह अनंतप्रदेशी अष्टस्पर्शी पुद्गल है । ( देखें '१४ व १५ ) १. पंच वण्णओ तारयाओ ठियलेसाचारिणो–पण्ण पद २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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