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________________ लेश्या - कोश ४०३ 'ध्यानेन' आर्त्तादिना करणभूतेन 'लेश्या' कृष्णादिका भवति यदा यादृशं प्रशस्तम प्रशस्तं वा ध्यानं भवति ताद्यगेव प्रशस्ता अप्रशस्ता वा लेश्याऽपीति भावः । 'भाणंतरतो व' त्ति ध्यानान्तरम् - अदृढाध्यवसायरूपं चित्तं यद् वा ध्यानस्य ध्यानस्य चान्तरिका ध्यानान्तरमुच्यते, तत्र वा वर्त्तमानस्य षण्णां लेश्यानामन्यतरा लेश्या भवति । - बिह० उ १ । भाष्य गा १६४० । टिप्पण भाव लेश्या आत्मा का - मानसिक परिणाम है । वह आत्मपरिणाम मानध्यान से अभिन्न है ऐसा माना जाता है। आर्त्तादि ध्यान के निमित्त से कृष्णादि लेश्यायें होती हैं । जब जैसा प्रशस्त या अप्रशस्त ध्यान होता है तब वैसी ही प्रशस्त या अप्रशस्त लेश्या भी होती है । अदृढ अध्यवसाय रूप चित्त या दो ध्यानों के बीच में होने वाली ध्यानान्तर से भी छओं लेश्याओं में से कोई भी लेश्या होती है । (क) मिथ्यात्वाविरति पतन्ति जंतवः श्वभ्रं क्रोधरौद्र-ध्यान-परायणाः । कृष्णलेश्यावशं गताः ॥ - ज्ञान० । प्रक ३६ | श्लो १५ ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचन्द्र ने कहा है- रोद्रध्यान में में पड़ते हैं । यह रौद्रध्यान कृष्ण लेश्या के वलकर संयुक्त है फल से चिह्नित है | * ६५२ रौद्रध्यान (ख) अवहट्ट अट्टरुद्दे महाभये सुग्ादीए पच्चू से | Jain Education International तत्पर प्राणी नरक और नरकपात के आशा टीका - अवहट्ट अपहृत्य । महाभये दुर्गति दुःखहेतुदुरित बंधनिदानत्वात् × × × - भगअ० गा १७०४ ( ग ) xxx । तदेतच्चतुर्विधं रौद्रध्यानम् अतिकृष्णनीलकापोतलेश्याबलाधानं प्रमादाधिष्ठानं नरकगतिफलावसानम् । एवमुक्ताप्रशस्तध्यानपरिणत आत्मा तप्तायस्पिण्ड इवोदकं कर्मादन्ते । - राज० अ है । सू ३५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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